Friday, June 3, 2011

मनुस्मृति : अपराध और दंड

स्वामी जी अपनी पुस्तक ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ में मनुस्मृति के संदर्भ से लिखते हैं कि दंड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधार पर होना चाहिए। (6-27)
स्वामी जी द्वारा संदर्भित मनुस्मृति के दंड विधान पर एक दृष्टि डालिए-
कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो त्रान्यः प्रकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा।।
(मनु0, 8-335)
भावार्थ - साधारण प्रजा को जिस अपराध के लिए एक पैसा दंड दिया जाता है, उसी अपराध में लिप्त होने पर राजा पर हजार पैसा दंड लगाया जाना चाहिए।


अष्टापद्यं तु शुद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्।
षौडशैस्तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत्क्षत्रियस्य च।।
(मनु0, 8-236)
     भावार्थ- यदि चोरी शुद्र, वैश्य या क्षत्रिय करता है तो उन्हें पाप का क्रमशः आठ, सोलह और बत्तीस गुना भागीदार बनना पड़ता है।


ब्राह्मणस्य चतुःषष्टि पूर्णं वापि शतं भवेत्।
द्विगुणा च चतुःषष्टिस्तद्दोषगुण विद्धि सः।
(मनु0, 8-337)
भावार्थ - इसी प्रकार चूंकि ब्राह्मण को चोरी के गुण-दोष का सर्वाधिक ज्ञान होता है, अतः वह चोरी करता है तो उसे पाप का चैसठ गुना भागीदार बनना पड़ता है।
यहां स्वामी जी ने वर्ण को ज्ञान और प्रतिष्ठा का आधार माना है और ब्राह्मण वर्ण को ज्ञान और प्रतिष्ठा में अन्य वर्णों क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से ऊंचा मानते हुए किसी अपराध में ब्राह्मण के लिए अधिक सजा का प्रावधान किया है। स्वामी दयानंद ने अपनी दंड
विधान की धारणा को मनुस्मृति के उक्त ‘लोकों से सत्य साबित करने का प्रयास अपनी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में किया है। (6-27)
अगर उक्त ‘लोकों से स्वामी दयानंद की यह धारणा कि दंड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधार पर होना चाहिए, सत्य साबित हो भी जाता है तो अब मुनस्मृति के निम्न ‘लोक भी देखिए, उनसे क्या साबित हो रहा है?


उभावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गुप्तया सह।
विलुप्तौ शुद्रवद्दण्ड्यौ दग्ध्व्यौ वा कटाग्निना।।
(मनु0, 8-376)
भावार्थ - यदि रक्षिण ब्राह्मणी से वैश्य या क्षत्रिय शारीरिक संबंध स्थापित करे तो उन्हें शुद्र के समान दंड देते हुए आग में जलाकर मार देना चाहिए।


सहस्रं ब्राह्मणो दण्ड्योगुप्तां विप्रां बलाद् व्रजन्।
शतानि पत्र्च दण्ड्यः स्यादिच्छन्त्या सह सड्.गतः।।
(मनु0, 8-377)
भावार्थ - रक्षित ब्राह्मणी से यदि ब्राह्मण बलात मैथुन करता है तो उस पर दो हजार पैसा दंड लगाना चाहिए। यदि ब्राह्मणी की सहमति से ऐसा करता है तो उसे पांच सौ पैसा दंड देना चाहिए।


मौण्ड्यं प्राणान्तिकोदण्डोब्राह्मणस्य विधीन्यते।
इतरेषां तु वर्णानां दण्डः प्राणान्तिको भवेत्।।
(मनु0, 8-378)
भावार्थ - ब्राह्मण के सिर मुंडवाने का अर्थ ही उसको मृत्युदंड देना है, जबकि अन्य वर्णवालों को मृत्युदंड मिलने पर उनका सचमुच वध किया जाना चाहिए।
न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम्।
राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनमक्षतम्।।
(मनु0, 8-379)
भावार्थ- भले ही ब्राह्मण ने अनेक महापाप किए हों, किंतु उसका वध करना निषिद्ध है। उसे देश निकाले की सजा दी जा सकती है, ऐसी स्थिति में उसका धन उसे दे देना उचित है।


न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मा विद्यते भुवि।
तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत्।।
(मनु0, 8-380)
भावार्थ- ब्राह्मण के वध से बढ़कर और कोई पाप नहीं। ब्राह्मण का वध करने की तो राजा को कल्पना भी नहीं करना चाहिए।


शतं ब्राह्मणमाक्रुश्य क्षत्रियो दण्डमर्हति।
वैश्योऽप्यर्धशतं द्वे वा शुद्रस्तुवधमर्हति।।
(मनु0, 8-266)
भावार्थ- ब्राह्मण को यदि क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र द्वारा अपशब्द या कठोर वचन कहा जाए तो उन्हें क्रमशः सौ पैसा, डेड़ सौ पैसा तथा वध का दंड देना चाहिए।


पत्र्चाशद् ब्राह्मणो दण्डः क्षत्रियस्याभिशंसने।
वैश्ये स्यादर्धपत्र्चाशच्छूद्रे द्वादशको दम्ः।।
(मनु0, 8-267)
भावार्थ- यदि ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र को अपशब्द कहा जाए तो उसे क्रमशः पचास, पच्चीस और बारह पैसा आर्थिक दंड देना चाहिए।


एकाजातिद्र्विजातीस्तु वाचा दारूण या क्षिपन्।
जिह्नयाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः।।
(मनु0, 8-269)
भावार्थ - शुद्र द्वारा द्विजातियों को अपशब्द कहा जाए तो उसकी जिह्ना काट लेनी चाहिए, ऐसे अधम के लिए यही दंड उचित है।


नामजातिग्रहं त्वेषामभिद्रोहेण कुर्वतः।
निक्षेप्योऽयोमयः ‘ांकुज्र्वलन्नास्ये दशांगुलः ।।
(मनु0, 8-270)
भावार्थ - यदि शुद्र प्रभाव के अहंकार में द्विजातियों के नाम व जाति का उपहास करता है तो आग में तप्त दस उंगली शलाका (लोहे की छड़) उसके मुंह में डाल देनी चाहिए।


धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणामस्य कुर्वतः।
तप्तमासेचयेत्तैलं वक्तृ श्रोत्रे च पार्थिवः ।।
(मनु0, 8-271)
    भावार्थ- यादि शुद्र दर्प में आकर द्विजातियों को धर्मोपदेश देने की धृष्टता करे तो राजा उसके मुंह व कान में खौलता तेल डलवा दे मनुस्मृति के उक्त ‘लोकों में दंड विधान को बदल दिया गया है। स्वामी दयानंद ने जहां ब्राह्मण को किसी अपराध में अन्य वर्णों  से अधिक दंड का अधिकारी माना है, वहीं उक्त ‘लोकों में ब्राह्मण के लिए अन्य वर्णों  से कम दंड का प्रावधान किया गया है। जैसा कि उक्त ‘लोकों से स्पष्ट है कि अगर क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र व्यभिचार करें तो उनको जलाकर मार देना चाहिए, जबकि ब्राह्मण को मात्र सिर मुंडवाने की सजा देनी चाहिए। स्वामी दयानंद के मतानुसार तो ब्राह्मण को जलाकर मारने से भी कोई बड़ी सजा दी जानी चाहिए। मगर यहां ब्राह्मण को सिर मुंडाने जैसी नाममात्र की सजा रखी गई है। जहां ब्राह्मण को अपशब्द कहने पर शुद्र के मुक़ाबले वैश्य को और वैश्य के मुकाबले क्षत्रिय को अधिक दंड देना चाहिए था, वहीं ‘लोक (8-266) में उक्त प्रावधान को उलट दिया गया है, क्षत्रिय और वैश्य को आर्थिक दंड रखा गया है वहीं शुद्र के लिए मृत्यु दंड की बात कही गई है। ‘लोक (8-269, 270, 271) में शुद्र  द्वारा द्विजातियों को मात्र अपशब्द कहने पर अमानवीय सजा का प्रावधान किया गया है। क्या सजा का यह प्रावधान बुद्धिसम्मत और न्यायसंगत है? जिस अपराध में ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक सजा होनी चाहिए थी वहीं ‘लोक (8-267) में ब्राह्मण को अन्य वर्णों से कम सजा का प्रावधान किया गया है। अब कहां गया स्वामी जी का ज्ञान और प्रतिष्ठा पर आधारित दंड विधान? क्या स्वामी जी ने पूरी मनुस्मृति नहीं पढ़ी थी?


अब क्या स्वामी दयानंद अथवा मनुस्मृति द्वारा प्रतिपादित दंड विधान की  धारणा न्यायसंगत और व्यावहारिक लगती है ? क्या कोई शासन व्यवस्था उक्त दंड विधान को मान्य करार दे सकती है? क्या उक्त विधान हास्यास्पद और अक्ल के ख़िलाफ़ नहीं है?

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