सरन प्रकाशन मंदिर मेरठ से प्रकाशित ‘‘भारत वर्ष का इतिहास’’ नाम की एक पुस्तक जो मैंने लगभग 20 वर्ष पहले पढ़ी थी, लिखा है, ‘‘मंदिर की आय के लिए 10 हजार गांव लगे थे। मंदिर में 100 पुजारी, 500 नर्तकियां तथा 200 गायक दर्शकों को भगवान के गीत सुनाया करते थे। मंदिर की अपार सम्पत्ति से ललचाकर महमूद अजमेर के रास्ते सोमनाथ के द्वार पर जा पहुंचा। राजपूतों ने मंदिर की रक्षा के लिए घमासान युद्ध किया, लगभग 5 हजार हिंदू मारे गए और विजय महमूद गजनवी को मिली। ---
सोमनाथ के मंदिर में शताब्दियों से एकत्रित अपार सम्पत्ति को लेकर उसने गज़नी के लिए प्रस्थान किया।’’ लगभग 10 वर्ष पहले मैंने राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पढ़ी थी। उसमें दिनकर लिखते हैं, ‘‘सोमनाथ मंदिर का ध्वंस करने से पूर्व भी महमूद गज़नवी ने अनेक मंदिरों का विनाश किया था। लेकिन सोमनाथ मंदिर के पुजारी इस विश्वास में थे कि अन्य देवताओं पर सोमनाथ की कृपा नहीं रहने से ही उनके मंदिरों का तोड़ा जाना सम्भव हुआ है। जब महमूद को यह खबर मिली, उसने ठान लिया कि सोमनाथ को तोड़ कर वह हिंदुओं के इस विश्वास को उन्मूलित करेगा कि पत्थर का देवता षक्तिशाली होता है। महमूद, सोमनाथ सन् 1025 ई0 की जनवरी में पहुंचा। मंदिर की रक्षा के लिए सेना आ जुटी थी, लेकिन हिंदू इस विश्वास में आनन्द मना रहे थे कि मुसलमानों का सफाया करने के लिए ही सोमनाथ जी ने उन्हें बुलाकर इकट्ठा कर लिया है। सोमनाथ की रक्षा के प्रयास में कोई 50 हजार हिंदू मंदिर के द्वार पर मारे गए और मंदिर तोड़कर महमूद ने कोई 2 करोड़ दीनार की सम्पत्ति लूट ली।’’ (पृ0, 261-262)
इसी माह सितम्बर में मैंने डॉ. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात’ जी की पुस्तक ‘‘क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?’’ को देखा, उसके पेज न0 203 पर सोमनाथ मंदिर के विषय में लिखा है, ‘‘इतिहासकार इब्ने असीर ने लिखा है कि लोग किले की दीवारों पर बैठे इस विचार से प्रसन्न हो रहे थे कि ये दुस्साहसी मुसलमान अभी चंद मिनटों में नष्ट हो जाएंगे। वे मुसलमानों को बता रहे थे कि हमारा देवता तुम्हारे एक-एक आदमी को नष्ट कर देगा। जब महमूद की सेना ने नरसंहार शुरू किया, तब हिंदुओं का एक समूह दौड़ता हुआ मंदिर की मूर्ति के सामने धरती पर लेट कर उससे विजय के लिए प्रार्थना करने लगा। हिंदुओं के ऐसे दल के दल मंदिर में प्रवेश करते, जिनके हाथ गरदन के पास जुड़े होते, जो रो रहे होते और बड़े भावावेश पूर्ण ढंग से सोमनाथ की मूर्ति के आगे गिड़गिड़ा कर प्रार्थनाएं कर रहे होते। फिर वे बाहर आते, जहां उन्हें कत्ल कर दिया जाता। यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक कि हर हिंदू कत्ल नहीं हो गया। (देखेंः सर एच.एच. इलियट और जान डाउसन कृत ‘द हिस्ट्री आफ इंडिया एज टोल्ड बाई इट्स ओन हिस्टोरियनस’ पृ0 470)
इस तरह 5 लाख अंधविश्वासी हिंदुओं ने सिर तो कटवा लिए, लेकिन मुकाबला एक ने भी नहीं किया।’’
अब ज़रा रूक कर सोचिए! उक्त तीनों पुस्तकों में सोमनाथ मंदिर कांड में हिंदुओं के कत्ल की जो संख्या क्रमशः 5 हजार, 50 हजार, 5 लाख लिखी है, क्या तीनों सच्ची हो सकती हैं ? यह बात एक कम शिक्षित व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता है कि उक्त तीनों आंकड़े झूठे तो हो सकते हैं, मगर तीनों सच्चे नहीं हो सकते। अब ज़रा सोचिए! आंकड़ों की यह भिन्नता आख़िर किस ओर इशारा कर रही है ? पाठक इतिहास के उक्त पन्नों से आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हें कि हमारा इतिहास कितना स्वच्छ, निष्पक्ष और विश्वनीय है।
यह प्रूफ की गलती या कोई भूल नहीं है। यह एक प्रोपगैंडा है। यह मुसलमान और इस्लाम विरोधी मानसिकता की करतूत है। यह एक धृष्टता है। यह इतिहास का सांप्रदायिकरण है। हमारा इतिहास ऐसी विद्वेष पूर्ण करतूतों और प्रोपगैंडों से भरा पड़ा है। उक्त इतिहास का एक पन्ना तो बानगी मात्र है। यहां एक बात यह भी क़ाबिले-ग़ौर है कि जिस कांड में एक पक्ष के 5 लाख लोग मारे गए हो, क्या वहां दूसरे पक्ष का कोई एक व्यक्ति भी हताहत नहीं हुआ ?
इसी तरह का एक उदाहरण ‘‘सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या’’ नामक पुस्तक में लिखा है। लिखा है, ‘‘बाबर के सिपाहियों ने अयोध्या में राम मंदिर पर हमला करते समय 75 हज़ार हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया और उनके रक्त को गारे की तरह इस्तेमाल कर बाबरी मस्जिद खड़ी की।’’ यह पुस्तक उक्त तथ्य के खंडन में लिखी गई है। यह पुस्तक मेरे पास खस्ता हालत में है, जिसमें लेखक का नाम स्पष्ट नहीं है। एक बच्चा भी समझ सकता है कि यह एक कोरा गप्प है। एक स्थान पर लिखा है, ‘‘अयोध्या श्रीराम जन्मभूमि मंदिर तोड़े जाते समय हिंदुओं ने जान की बाज़ी लगा दी। इस लड़ाई में 1 लाख 74 हज़ार हिंदुओं की लाश गिर जाने के बाद ही मीर बाकी तोपों के जरिए मंदिर को क्षति पहुंचा सका।’’ (कनिंघम लखनऊ गजेटियर अंक-36)
क्या इतिहास के उक्त पन्नों से यह बात साबित नहीं हो रही है कि सांप्रदायिक तत्वों द्वारा इतिहास को तोड़-मरोड़ कर ग़लत रंग देने की कुचेश्टा की गई है। ऐसा भी प्रतीत होता है कि इस्लाम और मुसलमानों के आलोचकों को इतिहास में जहां-जहां मौका मिला उसमें मनगढंत बातें जोड़ दी, छोटी सी बात को तूल देकर तिल का ताड़ बना दिया और मूल घटनाओं को विकृत करके पूरी तस्वीर ही बिगाड़ देने की हर मुमकिन कोषिष की गई।
यहां यह बात भी क़ाबिले-ग़ौर है कि भारत में चूंकि अंग्रेज़ों ने सत्ता मुसलमानों के हाथों से छीनी थी, वे नहीं चाहते थे कि हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर उनके खि़लाफ़ एकजुट हो जाए। वे चाहते थे कि दोनों क़ौमों के बीच नफ़रत और कटुता की ऐसी मज़बूत दीवार खड़ी की जाए जिसे सदियों तक न तोड़ा जा सके और वे उन्हें एक-दूसरे से लड़ाकर आराम से भारत पर हुकूमत कर सके और उनकी हुकूमत को कोई चुनौती देने वाला न हो। इस कुत्सित उद्देश्य के लिए इतिहास से बेहतर और कोई रास्ता नहीं हो सकता था। हिंदू और मुसलमानों के बीच पहले से ही संबंध नफ़रत और दुश्मनी के थे, उनको और हवा देना मुश्किल काम न था। इस उद्देश्य में उनकों बड़ी हद तक कामयाबी मिली। तथ्यात्मक दृष्टि से यह बात साबित भी हो रही है कि भारतीय इतिहास को विकृत किया गया है।
यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आज़ादी के 62 सालों के बाद भी हम उसी इतिहास को अपने सिर पर ढो रहे हैं, जो हमें कायर और बेवकूफ़ साबित कर रहा है।
इतिहास के अनुसार मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा हिंदू मंदिरों और मूर्तियों को लूटा गया, तोड़ा और तबाह किया गया। हिंदुओं को पीटा और कत्ल किया गया। हिंदुओं को बलात् मुसलमान बनाया गया। हिंदुओं की खूबसूरत बहू-बेटियों को जबरदस्ती रखेल बनाया गया। यहां सवाल यह पैदा होता है कि क्या वास्तव में हिंदू इतना कायर, कमज़ोर और फुसफुसिया था कि बहुसंख्यक होकर भी उसमें विरोध की ताकत न थी ? हक़ीक़त कुछ भी हो, विडंबना यह है कि हमने अपनी उक्त कमज़ोरी, दुर्गति और बेइज़्ज़ती को और बढ़ा चढ़ा कर पेश और प्रचारित किया। जहां सौ हिंदू मरे वहां हमने एक हजार बतलाए, जहां लोग स्वेच्छा से मुसलमान बने, वहां हमने तलवार के ज़ोर पर और प्रलोभन का इलज़ाम लगाया। हमने अपनी बहू-बेटियों को भी बदनाम करने में कोई कसर न छोड़ी।
यहां लगे हाथों हिंदू मंदिरों की हालत पर भी एक सरसरी नज़र डाल ली जाए तो शायद कुछ अनुचित न होगा। मंदिरों में बेशुमार दौलत सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात थे, जिनको लूट कर हज़ारों हाथियों, ऊंटों और बैलों पर लाद कर ले जाया गया था। लिखा है कि सोमनाथ मंदिर में घड़ियाल की जंजीर ही 200 मन सोने की थी। मंदिर में देवदासियां थीं, पुजारी थे, विलास-वासना थी, आडंबर और पाखंड था। धर्म और मंदिर की आड़ में न जाने क्या-क्या होता था। विडंबना है कि हमने कभी यह ग़ौर ही नहीं किया कि आख़िर पूजास्थलों पर देवदासियों और बेशुमार दौलत हीरे-जवाहरात का भला क्या काम ? हमारी आस्थाओं और धारणाओं ने हमें निकम्मा और कायर बना दिया मगर हमने आज तक उन पर एक वैज्ञानिक दृष्टि डालने की ज़हमत गवारा न की।
उक्त लिखने का मेरा उद्देश्य मुस्लिम आक्रांताओं और उनके कृत्यों की तरफ़दारी करना हरगिज़ नहीं है। यहां मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि हम सच्चाई को समझने का प्रयास करें। जो इतिहास हम पढ़ रहे हैं, हम ग़ौर करें कि वह कितना निष्पक्ष और विश्वसनीय है। हम इतिहास का अध्ययन और विश्लेषण करने में तर्क और विवेक का इस्तेमाल करें। हम उन अंधविश्वासों और कर्मकांडों को छोड़ दें, जिनके कारण हम पीटते और अपमानित होते रहे हैं।
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