‘सत्यार्थ प्रकाश’ के निर्माता आचार्य स्वामी दयानंद सरस्वती बाल ब्रह्मचारी और संन्यासी थे। स्वामी जी ने ब्रह्मचर्याश्रम से ही सीधे संन्यास ग्रहण किया था। स्वामी जी ने लिखा है-
ब्रह्माचय्र्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत्।।
-(शत. कां. 14)
मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्य्यश्रम को समाप्त करके गृहस्थ होकर वानप्रस्थ और वानप्रस्थ होकर संन्यासी होवें अर्थात् यह अनुक्रम से होकर आश्रम का विधान है। (5-1)
किसी ने स्वामी जी से सवाल किया -
प्रश्न - गृहाश्रम सब से छोटा होता है या बड़ा ?
उत्तर- अपने-अपने कत्र्तव्य कर्मों में सब बड़े है, परन्तु -
यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् ।
तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।।1।।
-(मनु,06-90)
यथा वायुं समाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वजन्तवः।
तथा गृहस्थामाश्रित वत्र्तन्ते सर्व आश्रमाः।।2।।
यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनात्रेन चान्वहम्।
गृहस्थेनैव धाय्र्यन्ते तस्माज्येष्ठाश्रमो गृही।।3।।
स संधाय्र्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।
सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।।4।।
-(मनु,03-77, 78, 79)
जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं। बिना इस आश्रम के किसी आश्रम को कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।।1।। जिससे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अत्राादि देके प्रतिदिन गृहस्थ ही धारण करता है इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है।।2।। इसलिए जो मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता। हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धारण करे।।3।। जो गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरू और निर्बल पुरूषों से धारण करने अयोग्य है उसको अच्छे प्रकार धारण करे।।4।।
इसलिए जितना कुछ व्यवहार संसार में है उसका आधार गृहाश्रम है। जो यह गृहाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम कहाँ से हो सकते ? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वह निन्दनीय है। और जो प्रंशसा करता है वही प्रशंसनीय है, परन्तु तभी गृहाश्रम में सुख होता है जब स्त्री और पुरूष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान, पुरूषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिए गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह है। (4-152, 153)
स्वामी जी से उक्त से संबंधित एक सवाल यह भी किया-
प्रश्न- गृहाश्रम और वानप्रस्थाश्रम न करके संन्यासाश्रम करे उसको पाप होता है या नहीं?
उत्तर - होता है और नहीं भी होता।
प्रश्न- यह दो प्रकार की बात क्यों कहते हो?
उत्तर- दो प्रकार की नहीं, क्योंकि जो बाल्यावस्था में विरक्त होकर विषयों में फंसे वह महापापी और जो न फंसे वह महापुण्यात्मा सत्पुरूष है। आगे लिखा है- जो पूर्ण विद्वान, जितेन्द्रिय, विषय भोग की कामना से रहित, परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरूष हो, वह ब्रह्मचर्याश्रम ही से संन्यास लेवे। (5-7,8,9)
कहने का मतलब स्पष्ट है कि स्वामी जी पूर्ण विद्वान, जितेन्द्रिय विषयभोग की कामना से रहित, महापुण्यात्मा सत्पुरूष थे, क्योंकि उन्होंने ब्रह्मचर्याश्रम से ही सीधे संन्यास ग्रहण किया था।
एक ब्रह्मचारी और संयासी के जीवन का शास्त्रीय आदर्श है कि उसे काम, क्रोध, अहंकार, मोह, भय, शोक, ईष्र्या, निंदा, कपट, कुटिलता, अश्लीलता आदि अवगुणों से सदैव दूर रहना चाहिए। मगर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में अहंकार, निंदा, अश्लीलता के अलावा कुछ और दिखाई नहीं पड़ता। स्वामी दयानंद ने अपने महान ग्रंथ में जैन तीर्थंकर स्वामी महावीर, महात्मा गौतम बुद्ध, ईसा मसीह, हज़रत मुहम्मद, गुरू नानक सिंह आदि किसी भी महापुरूष और उनसे संबंधित संप्रदाय को नहीं बख्शा, जिसकी निंदा और अमर्यादित आलोचना न की हो। स्वामी जी ने स्वयं के अलावा किसी अन्य को विद्वान और पुण्यात्मा नहीं समझा।
स्वामी दयानंद किस व्यक्ति को अपना आदर्श मानते थे, उन्होंने कहीं उसके नाम का उल्लेख तक नहीं किया है। संपादक महोदय पं0 भगवद्दत्त लिखते हैं, ‘‘ऋषि दयानन्द सरस्वती प्राचीन ऋषि-मुनियों के उत्कृष्टतम प्रतिनिधि थे। उन्होंने भारत को एक धक्का दिया था, सोई हुई आर्य जाति को पकड़ कर हिलोरे दे-देकर जगाया था। इस काम में ऐसा समर्थ पुरूष गत पाँच सहस्र वर्ष में इस भारत भूमि पर नहीं जन्मा।’’ (संपादक की भूमिका)
आधुनिक भारत के उक्त निर्माता आचार्य ने विभिन्न मत-मतान्तरों और उनके प्रवर्तकों के विषय में क्या टीका-टिप्पणी की है ज़रा उस पर भी एक नज़र डाल लीजिए-
........... इससे यह सिद्ध होता है कि सबसे वैर, विरोध, निन्दा, ईष्र्या आदि दुष्ट कर्मरूप सागर में डुबाने वाला जैनमार्ग है। जैसे जैनी लोग सबके निन्दक हैं वैसे कोई भी दूसरा मत वाला महानिन्दक और अधर्मी न होगा। क्या एक ओर से सबकी निन्दा और अपनी अतिप्रशंसा करना शठ मनुष्यों की बातें नहीं हैं?विवेकी लोग तो चाहे किसी के मत के हों उनमें अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहते हैं। (12-105)
........... भला! जो कुछ भी ईसा में विद्या होती तो ऐसी अटाटूट, जंगलीपन की बात क्यों कह देता?तथापि ‘यत्र देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते।’ जिस देश में कोई भी वृक्ष न हो तो उस देश में एरण्ड का वृक्ष ही सबसे बड़ा और अच्छा गिना जाता है वैसे महाजंगली देश में ईसा का भी होना ठीक था, पर आजकल ईसा की क्या गणना हो सकती है। (13-77)
........... अब सुनिए! ईसाइयों के स्वर्ग में विवाह भी होते हैं, क्योंकि ईसा का विवाह ईश्वर ने वहीं किया। पूछना चाहिए कि उसके श्वसुर, सासू, शालादि कौन थे और लड़के-बाले कितने हुए?और वीर्य के नाश होने से बल, बुद्धि, पराक्रम, आयु आदि के भी न्यून होने से अब तक ईसा ने वहाँ शरीर त्याग किया होगा। (13-145)
प्रहलाद को उसका पिता पढ़ने के लिए भेजता था; क्या बुरा काम किया था? और वह प्रहलाद ऐसा मूर्ख पढ़ना छोड़ वैरागी होना चाहता था। जो जलते हुए खम्भे से कीड़ी चढ़ने लगी और प्रहलाद स्पर्श करने से न जला इस बात को जो सच्ची माने उसको भी खम्भे के साथ लगा देना चाहिए। जो यह न जले तो जानो वह भी न जला होगा और नृसिंह भी क्यों न जला? (11-182)
........... वाह कुरान का खुदा और पैग़म्बर तथा कुरान को! जिसको दूसरे का मतलब नष्ट कर अपना मतलब सिद्ध करना इष्ट हो ऐसी लीला अवश्य रचता है। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि मुहम्मद साहेब बड़े विषयी थे। यदि न होते तो (लेपालक) बेटे की स्त्री को जो पुत्र की स्त्री थी; अपनी स्त्री क्यों कर लेते? और फिर ऐसी बातें करने वाले का खुदा भी पक्षपाती बना और अन्याय को न्याय ठहराया। मनुष्यों में जो जंगली भी होगा वह भी बेटे की स्त्री को छोड़ता है और यह कितनी बड़ी अन्याय की बात है कि नबी को विषयासक्ति की लीला करने में कुछ भी अटकाव नहीं होना! यदि नबी किसी का बाप न था तो जैद (लेपालक) बेटा किसका था?और क्यों लिखा? यह उसी मतलब की बात है कि जिस बेटे की स्त्री को भी घर में डालने से पैग़म्बर साहेब न बचे, अन्य से क्योंकर बचे होंगे?ऐसी चतुराई से भी बुरी बात में निन्दा होना कभी नहीं छूट सकता। क्या जो कोई पराई स्त्री भी नबी से प्रसन्न होकर विवाह करना चाहे तो भी हलाल है?और यह महा अधर्म की बात है कि नबी जिस स्त्री को चाहे छोड़ देवे और मुहम्मद साहेब की स्त्री लोग यदि पैग़म्बर अपराधी भी हो तो कभी न छोड़ सकें! जैसे पैग़म्बर के घरों में अन्य कोई व्यभिचार दृष्टि से प्रवेश न करें तो वैसे पैग़म्बर साहेब भी किसी के घर में प्रवेश न करें। क्या नबी जिस किसी के घर में चाहें निश्शंक प्रवेश करें और माननीय भी रहें? भला! कौन ऐसा हृदय का अन्धा है कि जो इस कुरान को ईश्वरकृत और मुहम्मद साहेब को पैग़म्बर और कुरानोक्त ईश्वर को परमेश्वर मान सके। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे युक्तिशून्य धर्मविरुद्ध बातों से युक्त इस मत को अरब देशनिवासी आदि मनुष्यों ने मान लिया! (14-129)
............. नानक जी का आशय तो अच्छा था, परन्तु विद्या कुछ भी नहीं थी। हाँ! भाषा उस देश की जोकि ग्रामों की है उसे जानते थे। वेदादि शास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। जो जानते होते तो ‘निर्भय’ शब्द को ‘निर्भो’ क्यों लिखते? और इसका दृष्टान्त उनका बनाया संस्कृती स्तोत्र है। चाहते थे मैं संस्कृत में भी पग अड़ाऊँ, परन्तु बिना पढ़े संस्कृत कैसे आ सकती है? हाँ, उन ग्रामीणों के सामने कि जिन्होंने संस्कृत कभी सुना भी नहीं था ‘संस्कृती’ बनाकर संस्कृत के भी पण्डित बन गए होंगे। यह बात अपने मान-प्रतिष्ठा और अपनी प्रख्याति की इच्छा के बिना कभी न करते। उनको अपनी प्रतिष्ठा की इच्छा अवश्य थी। नहीं तो जैसी भाषा जानते थे कहते रहते और यह भी कह देते कि मैं संस्कृत नहीं पढ़ा। जब कुछ अभिमान था तो मान-प्रतिष्ठा के लिए कुछ दम्भ भी किया होगा, इसीलिए उनके ग्रन्थ में जहाँ-तहाँ वेदों की निन्दा और स्तुति भी है, क्योंकि जो ऐसा न करते तो उनसे भी कोई वेद का अर्थ पूछता जब न आता तब प्रतिष्ठा नष्ट होती, इसीलिए पहले ही अपने शिष्यों के सामने कहीं-कहीं वेदों के विरुद्ध बोलते थे और कहीं-कहीं वेद के लिए अच्छा भी कहा है, क्योंकि जो कहीं अच्छा न कहते तो लोग उनको नास्तिक बताते। (11-275)
अच्छे व्यक्ति की पहचान की पहली कसौटी उसकी भाषा होती है। क्या उक्त प्रकार की भाषा शैली एक पूर्ण विद्वान और संन्यासी को शोभा देती है? क्या उक्त विषय वस्तु में एक ब्रह्मचारी ने शास्त्रीय आदर्शों का उल्लंघन नहीं किया है?
स्वामी जी लिखते हैं कि ‘‘यदि किसी मत का विद्वान किसी अन्य मत की निंदा करता है तो निंदा करने वाले विद्वान की अच्छी बातें भी दोषयुक्त हो जाती हैं।’’ (12-95)
क्या यह बात स्वामी दयानंद पर लागू नहीं होती?
स्वामी जी लिखते है कि ‘‘जो अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा और अपने ही धर्म को बड़ा कहना और दूसरों की निंदा करना यह मूर्खता की बात है, क्योंकि प्रशंसा उसी की ठीक है जिसकी दूसरे विद्वान करें। अपने मुख से अपनी प्रशंसा तो चोर भी करते हैं।’’ (12-99)
क्या यह बात स्वामी दयानंद पर लागू नहीं होती?
स्वामी जी लिखते है कि, ‘‘बहुत मनुष्य ऐसे हैं जिनको अपने दोष तो नहीं दीखते, किन्तु दूसरों के दोष देखने में अति उद्युक्त रहते हैं। यह न्याय की बात नहीं, क्योंकि प्रथम अपने दोष देख, निकाल के पश्चात दूसरे के दोषों में दृष्टि देके निकालें। (12-8)
क्या यह बात स्वामी दयानंद पर लागू नहीं होती?
स्वामी जी लिखते हैं कि, ‘‘जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है। इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता।’’ (भूमिका)
क्या यह बात स्वामी जी पर लागू नहीं होती?
स्वामी जी लिखते हैं कि, ‘‘बहुत से हठी, दुराग्रही मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिप्राय से विरुद्ध कल्पना किया करते हैं, विशेषकर मत वाले लोग। क्योंकि मत के आग्रह से उनकी बुद्धि अन्धकार में फंस के नष्ट हो जाती है।’’ (भूमिका)
क्या यह बात स्वामी जी पर लागू नहीं होती?
स्वामी जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा है कि एक ब्रह्मचारी के लिए अष्ट प्रकार के मैथुन जैसे स्त्री दर्शन, स्त्री चर्चा और स्त्री संग अदि सब निषिद्ध है, मगर स्वामी जी ने अपनी पुस्तक में न केवल स्त्री चर्या और सेक्स चर्चा की है, बल्कि एक नव विवाहित जोड़े को गर्भाधान किस प्रकार करना चाहिए ? इस विधि का खुला चित्रण किया है।
विषय वस्तु पर एक नज़र डालिए -
............. जब वीर्य का गर्भाशय में गिरने का समय हो उस समय स्त्री और पुरूष दोनों स्थिर और नासिका के सामने नासिका, नेत्र के सामने नेत्र अर्थात् सूधा शरीर और अत्यन्त प्रसन्नचित्त रहें, डिगें नहीं। पुरूष अपने ‘ारीर को ढीला छोड़े और स्त्री वीर्य प्राप्ति-समय अपान वायु को ऊपर खींचे, योनि को ऊपर संकोच कर वीर्य का ऊपर आकर्षण करके गर्भाशय में स्थिर करे। पश्चात् दोनों शुद्ध जल से स्नान करें।
गर्भास्थिति होने का परिज्ञान विदुषी स्त्री को तो उसी समय हो जाता है, परन्तु इसका निश्चय एक मास के पश्चात् रजस्वला न होने पर सब को हो जाता है।
जब महीने भर में रजस्वला न होने से गर्भस्थिति का निश्चय हो जाए तब से एक वर्ष पर्यन्त स्त्री-पुरूष का समागम कभी न होना चाहिए, क्योंकि ऐसा होने से सन्तान उत्तम और पुनः दूसरा सन्तान भी वैसा ही होता है। अन्यथा वीर्य व्यर्थ जाता, दोनों की आयु घट जाती और अनेक प्रकार के रोग होते हैं, परन्तु ऊपर से भाषणादि प्रेमयुक्त व्यवहार दोनों को अवश्य रखने चाहिए।
................ संतान छह दिन तक माता का दूध पिये और स्त्री भी अपने शरीर के पुष्टि के अर्थ अनेक प्रकार के उत्तम भोजन करे और योनिसंकोचादि भी करे। छठे दिन स्त्री बाहर निकले और सन्तान के दूध पीने के लिए कोई धायी रक्खे। उसको खान-पान अच्छा करावे। वह सन्तान को दूध पिलाया करे और पालन भी करे, परन्तु उसकी माता लड़के पर पूर्ण दृष्टि रक्खे, किसी प्रकार का अनुचित व्यवहार उसके पालन में न हो। स्त्री दूध बन्ध करने के अर्थ स्तन के अग्रभाग पर ऐसा लेप करे कि जिससे दूध स्रवित न हो। उसी प्रकार खान-पान का व्यवहार भी यथायोग्य रक्खे।
(4-64, 65, 68)
क्या उक्त को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि जिस प्रकार एक योग गुरू स्त्री-पुरूषों को अनुलोम-विलोम आदि योग क्रियाओं का अभ्यास करता है ठीक इसी प्रकार स्वामी जी ने नव विवाहित जोड़ों को गर्भाधान की विधि और आगे के क्रिया कलापों और संबंधों को इतने विश्वास, साहस और ज्ञान के साथ समझाया है मानो उन्हें इस कठिन तकनीकी (ज्मबीदपबंस) कार्यों का वर्षों का तजुर्बा हो और वे इस कार्य के विशेषज्ञ (ैचमबपंसपेज) हों। गर्भाधान की प्रक्रिया समझाने के बाद नोट में यह भी लिखा है कि, ‘‘यह बात रहस्य की है इसलिए इतने ही से समग्र बातें समझ लेनी चाहिए, विशेष लिखना उचित नहीं है।’’
कैसी विचित्र विडंबना है कि एक ऐसा व्यक्ति जो किसी विषय का अ ब स न जानता हो और वह विषय उसके लिए निषिद्ध और निंदनीय भी हो, फिर भी वह व्यक्ति उस विषय का ज्ञाता और प्रवक्ता हो। इससे अधिक धूर्तता, निर्लज्जता और दुस्साहस की बात यह देखिए कि वह व्यक्ति यह दावा भी करता है कि मैं इससे अधिक भी जानता हूँ, जिसका लिखना यहाँ उचित नहीं है। भला सेक्स संबंधी ऐसा कौन सा रहस्य है जिसे एक ब्रह्मचारी तो जान सकता है, मगर एक विवाहित नहीं जान सकता? क्या यहां प्रश्न चिंह नहीं बनता ?
एक बात यह भी देखिए कि ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लगभग 40 बार वीर्य शब्द का प्रयोग हुआ है और लिखा है कि यह अमूल्य है। स्वामी जी के जीवन चरित्र को पढ़ने पर पता चलता है कि स्वामी जी नंगे रहा करते थे। लगभग 48 वर्ष की उम्र के बाद उन्होंने कपड़े पहनने प्रारम्भ किए। क्या यहीं चरित्र चिंतन है एक ब्रह्मचारी का ? क्या कोई धर्मग्रंथ किसी ब्रह्मचारी अथवा संन्यासी को नंगा रहने की अनुमति देता हैं ?
अब जहाँ तक गर्भाधान विधि का प्रश्न है, यह तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसे तो न केवल अनपढ़, गवार मनुष्य जानता है, बल्कि पशु-पक्षी भी जानते है। पशु-पक्षियों को कौनसे ‘ाास्त्रों का ज्ञान होता हैं ? उन्हें भला कौन यह सब सिखाता हैं?
स्वामी जी ने गर्भाधान की उक्त विधि के साथ यह भी बताया कि गर्भास्थिति (च्तमहदंदबल) का निश्चय हो जाने के बाद एक वर्ष तक स्त्री-पुरूष को समागम नहीं करना चाहिए, क्यांेकि ऐसा करने से अगली संतान निकृष्ट पैदा होती है, दोनों की आयु घट जाती है और अनेक प्रकार के रोग होते है। आगे यह भी लिखा है कि संतान के जन्म के बाद स्त्री योनिसंकोचादि भी करे।
स्वामी जी से किसी ने उक्त विषय से संबंधित निम्न सवाल भी किया-
प्रश्न- जब एक विवाह होगा, एक पुरूष को एक स्त्री और एक स्त्री को एक पुरूष रहेगा तब स्त्री गर्भवती, स्थिररोगिणी अथवा पुरूष दीर्घरोगी हो और दोनों की युवावस्था हो, रहा न जाय तो फिर क्या करें ?उत्तर- इस का प्रत्युत्तर नियोग विषय में दे चुके हैं और गर्भवती स्त्री से एक वर्ष समागम न करने के समय में पुरूष व स्त्री से दीर्घरोगी पुरूष की स्त्री से न रहा जाए तो किसी से नियोग करके उसके लिए पुत्रोत्पत्ति कर दे, परन्तु वेश्यागमन वा व्यभिचार कभी न करें। (4-149)
अब पहले तो उस सवाल पर ध्यान दीजिए, जिसमें स्वामी जी से पूछा गया है कि यदि किसी पुरूष की पत्नी गर्भवती हो और पुरूष की युवावस्था (ल्वनदह ।हम) हो और उससे न रहा जाए तो वह पुरूष क्या करे? स्वामी जी ने बताया कि वह किसी अन्य की पत्नी से नियोग करके पुत्रोत्पत्ति कर दे। अब यहां सभ्य और बुद्धिजीवी लोग ग़ौरे करें कि अगर किसी गाँव में 10 पुरूष ऐसे है जिनकी स्त्री गर्भवती है और स्त्री एक भी ऐसी नहीं है जिसे पुत्र की इच्छा हो, तो ऐसी स्थिति में वे 10 युवापुरूष कहां जाए? तीसरी बात यह कि युवा गर्भवती स्त्रियों का क्या होगा? क्या गर्भवती होने पर स्त्री की कामेच्छा समाप्त हो जाती हैं? अगर उनके अंदर यौन इच्छा हो, तो वे क्या करें?
चैथी बात जो कही गई है कि गर्भवती स्त्री से समागम करने से वीर्य व्यर्थ जाएगा, अगली संतान निकृष्ट पैदा होगी, आयु घट जाएगी, अनेक प्रकार के रोग हो जाएंगे। क्या ये सब बातें चिकित्सा विज्ञान की (डमकपबंस ैबपमदबम) की दृष्टि से तर्क पूर्ण है ? स्वामी जी ब्रह्मचारी और योगी थे, मगर उनका स्वास्थ्य आम गृहस्थी से अच्छा नहीं था। 58-59 साल की आयु में स्वामी जी का वजन लगभग 150 कि0 ग्राम होना क्या अच्छे स्वास्थ्य का लक्षण है। क्या स्वामी जी की उक्त सभी प्रकार की सलाह (।कअपेमम) अतार्किक और अव्यावहारिक नहीं है ? न मालूम स्वामी जी ने कौनसा धर्मग्रंथ और चिकित्सा विज्ञान (डमकपबंस ैबपमदबम) पढ़कर उक्त सलाह (।कअपबम) गृहस्थियों को दी है?
आगे स्वामी जी ने जैसा कि लिखा है कि संतान के जन्म के बाद स्त्री योनिसंकोचादि करे और छह दिन के बाद स्तन के अग्र भाग पर ऐसा लेप करे कि दूध स्रवित न हो। यहां ये दोनों बातें भी स्वामी जी से पूछने की है कि आख़िर ये योनिसंकोचादि क्या है? यह किस प्रकार होता है ? दूसरी बात यह भी स्वामी जी से पूछने की है कि क्या प्रसव के छह दिन के बाद स्त्री का दूध रोकना प्राकृतिक व्यवस्था के विरूद्ध नहीं हैं? तीसरी बात यह कि क्या धायी स्त्री नहीं होती, आख़िर वही बच्चे को दूध क्यों पिलाए? क्या स्वामी जी की सारी बातें बेतुकी नहीं हैं?
अश्लील विषय से संबंधित समुल्लास-14 में कुरआन की कुछ आयतों की समीक्षा के कुछ अंश भी देखिए -
.............. वाह क्या कहना इसके बहिश्त की प्रशंसा कि वह अरबदेश से भी बढ़कर दीखती है! और जो मद्य मांस पी-खाके उन्मत्त होते हैं इसलिए अच्छी-अच्छी स्त्रियाँ और लौंडे भी वहाँ अवश्य रहने चाहिए नहीं तो ऐसे नशेबाजों के शिर में गरमी चढ़ के प्रमत्त हो जावें। अवश्य बहुत स्त्री-पुरूषों के बैठने सोने के लिए बिछौने बड़े-बड़े चाहिए। जब खुदा कुमारियों को बहिश्त में उत्पन्न करता है तभी तो कुमारे लड़कों को भी उत्पन्न करता है। भला कुमारियों का तो विवाह जो यहाँ से उम्मेदवार होकर गये हैं उनके साथ खुदा ने लिखा पर उन सदा रहनेवाले लड़कों का भी किन्हीं कुमारियों के साथ विवाह न लिखा तो क्या वे भी उन्हीं उम्मेदवारों के साथ कुमारीवत् दे दिये जावेंगें? इसकी व्यवस्था कुछ भी न लिखी। यह खुदा से बड़ी भूल क्यों हुई? यदि बराबर अवस्थावाली सुहागिन स्त्रियाँ पतियों को पाके बहिश्त में रहती हैं तो ठीक नहीं हुआ, क्योंकि स्त्रियों से पुरूष का आयु दूना-ढाई गुना चाहिए, यह तो मुसलमानों के बहिश्त की कथा है (14-143)
दूसरी जगह देखिए स्वामी जी क्या लिखते हैं -
क्योंजी मोती के वर्ण से लड़के किस लिए वहाँ रक्खे जाते हैं? क्या जवान लोग सेवा वा स्त्रीजन उनको तृप्त नहीं कर सकतीं? क्या आश्चर्य है कि जो यह महा बुरा कर्म लड़कों के साथ दुष्ट जन करते हैं उसका मूल यही कुरान का वचन हो और बहिश्त में स्वामी सेवकभाव होने से स्वामी को आनन्द और सेवक को परिश्रम होने से दुःख तथा पक्षपात क्यों हैं ? और जब खुदा ही उनको मद्य पिलावेगा तो वह भी उनका सेवकवत् ठहरेगा, फिर खुदा की बड़ाई क्योंकर रह सकेगी? और वहाँ बहिश्त में स्त्री-पुरूष का समागम और गर्भस्थिति और लड़के-बाले भी होते हैं वा नहीं ? यदि नहीं होते तो उनका विषय सेवन करना व्यर्थ हुआ और जो होते हैं तो वे जीव कहाँ से आये? और बिना खुदा की सेवा के बहिश्त में क्यों जन्मे? यदि जन्मे तो उनको बिना ईमान लाने और किन्हीं को बिना धर्म के सुख मिल जाए इससे दूसरा बड़ा अन्याय कौन-सा होगा? (14-152)
उक्त कुरआन की समीक्षा को पढ़कर क्या ऐसा नही लगता, जैसे कोई बद-जबान आदमी शराब पीकर अनाप-शनाप बकना शुरू कर दे? एक विद्वान और सभ्य पुरूष का अपना एक बौद्धिक स्तर (Intellectual Level) और एक नैतिक स्तर (Moral Standred) होता है। वह अपनी बात शिष्टता और सभ्यता के साथ कहता है बशर्ते वह आलोचना अथवा विरोध ही क्यों न कर रहा हो। उसके तर्कों में गहनता और गंभीरता होती है। मेरा तो यही मानना है कि एक विद्वान और पुण्यात्मा पुरूष कभी ऐसी अनाप-शनाप बातें (Talking) नहीं कर सकता।
............ एक हण्डे में चुड़ते चावलों में से एक चावल की परीक्षा करने से कच्चे वा पक्के हैं सब चावल विदित हो जाते हैं। ऐसे ही इस थोड़े से लेख से सज्जन लोग बहुत सी बातें समझ लेंगे। बुद्धिमानों के सामने बहुत लिखना आवश्यक नहीं, क्योंकि दिग्दर्शनवत् सम्पूर्ण आशय को बुद्धिमान लोग जान ही लेते हैं। (12-232)
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