वेदों के महापंडित और तर्कसंगत विचारों के पोषक स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में वर्णित और इस पुस्तक के आलेख, ‘सत्यार्थ प्रकाश-भाषा, तथ्य और विषय वस्तु’ में अंकित कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों की संक्षिप्त समीक्षा निम्न प्रकार है -
1. तथ्य -
प्रसूता छह दिन के पश्चात् बच्चे को दूध न पिलावे। (2-3) (4-68)
समीक्षा - ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के रचयिता ने लिखा है कि प्रसूता छः दिन के बाद बच्चे को दूध न पिलाए। इसका कारण यह लिखा है कि बच्चा प्रसूता के शरीर का अंश होता है। स्त्री प्रसव समय निर्बल हो जाती है। दूध रोकने का उपाय भी बताया है कि प्रसूता स्त्री स्तन के छिद्र पर उस औषधि का लेप करें जिससे दूध स्रवित न हो। ऐसा करने से दूसरे महीने में स्त्री युवति हो जाती है। (2-3) (4-68)
उक्त बात जो ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखी है, प्रकृति और विज्ञान दोनों के शत-प्रतिशत खि़लाफ़ है। सृष्टिकर्ता ने स्त्री जाति में स्तन और दूध की व्यवस्था आखि़र किसलिए रखी है? पशु भी अपने बच्चों को दूध पिलाते है, उनके बच्चे भी उनके शरीर का अंश ही होते हैं? चिकित्सा विज्ञान के अनुसार माता के दूध से उपयोगी बच्चे के लिए कोई आहार नहीं हो सकता। माँ का दूध बच्चे के आदर्श पोषण का अद्वितीय साधन है। प्रथम छः माह के दौरान स्तनपान के सिवा बच्चे को अन्य कोई पेय पदार्थ नहीं देना चाहिए। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में जो बात कही गई है वह नितांत अज्ञानपूर्ण और नासमझी की है।
माता द्वारा अपने बच्चे को दूध पिलाना न केवल बच्चे के लिए उपयोगी है बल्कि माता के स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। विज्ञान ने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया है कि जो माताएं अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाती, उन स्त्रियों में छाती और अण्डाशय का कैंसर होने की संभावना अत्याधिक होती है। प्रसव के शीघ्र उपरांत स्तनपान आरम्भ करने से माँ को होने वाले प्रसवोत्तर रक्तस्राव और रक्ताल्पता का खतरा कम हो जाता है। केवल स्तनपान से माँ की प्रतिरक्षण प्रणाली को मजबूती मिलती है, अगला गर्भ जल्दी नहीं ठहरता। माँ का दूध न केवल बच्चे के लिए पौष्टिक होता है बल्कि बच्चे के अन्दर बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता भी उत्पन्न करता है।
बच्चों के लिए कार्यरत संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रंस इमरजेंसी फंड (यूनीसेफ) ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि माताओं द्वारा अपने नवजात शिशुओं को अपना दूध न पिलाने के कारण भारत में ही प्रतिवर्ष लगभग 16 लाख बच्चे जन्म के पहले साल में ही काल कलवित हो जाते हैं। एजेंसी के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष एक करोड़ से ज्यादा बच्चे अतिसार और न्यूमोनिया के कारण मौत के शिकार होते हैं, अगर माताएं अपने नवजात शिशुओं को दूध पिलाए तो इन बीमारियों को रोका जा सकता है।
स्तनपान माँ व नवजात शिशु के बीच एक सर्वाधिक स्वाभाविक प्रक्रिया है। माँ के दूध में आवश्यक पोषक तत्त्व, एंटीबॉडीज हार्मोन, प्रतिरोधीकारक और ऑक्सीडेंट पाए जाते हैं जो नवजात शिशुओं के शुरुआती छः माह की वृद्धि के लिए ज़रूरी होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार पर्याप्त मात्रा में स्तनपान का लाभ न मिलने के कारण जन्म के प्रथम वर्ष में लाखों बच्चे मौत का शिकार बन जाते हैं। विश्व में स्तनपान को बढ़ावा देने के लिए सन् 1992 से प्रतिवर्ष 1 से 7 अगस्त तक 120 देशों में स्तनपान सप्ताह आयोजित किया जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य स्तनपान के बारे में फैले भ्रम को समाप्त करना है।
ऋग्वेद में भी माता द्वारा बच्चे को स्तनपान का उल्लेख मिलता है ः-
‘‘अद्येदु प्राराीदमन्निमाहापीवृतो अधयन्मातुरूधः।
एमेनभाप जरिमा युवानमहेळनव्सुः सुमना बभूव।।
(ऋग्वेद 10-32-8)
भावार्थ ः जीव गर्भ में प्राण धारण करता है तथा नाना संकल्पों को सोचने लगता है। पैदा होकर देह में रहकर माता के स्तन का पान करता है। वाणी की शक्ति से युक्त होकर गुरु के पास निवास कर योग्य मन और बुद्धि वाला हो जाता है।’’
2.तथ्य -
24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरूष का विवाह उत्तम है अर्थात् स्वामी जी के मतानुसार लड़के की उम्र लड़की से दूना या ढाई गुना होनी चाहिए। (3-31) (4-20) (14-143)
समीक्षा- जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरुष का विवाह उत्तम है। यहां सोचने की बात है कि लड़के और लड़की की उम्र में 24 या 30 साल के अंतर को उत्तम विवाह कैसे कहा जा सकता है? उत्तम विवाह के लिए तो लड़का-लड़की दोनों जवान (ल्वनदह) हो और दोनों की उम्र में 3-4 साल से अधिक का अंतर न हो, यही व्यावहारिक और उत्तम है। 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरुष का विवाह क़तई अव्यावहारिक और असंगत है। इस तरह के उत्तम विवाह का प्रचलन शायद ही किसी समाज में कभी रहा हो, वैदिक समाज में भी नहीं। हमारे धर्मग्रंथ भी 25 वर्ष की उम्र में पुरुष को गृहस्थ जीवन में प्रवेश की अनुमति देते हैं। 48 वर्ष की उम्र में पुरुष की ‘शादी से तो शादी का उद्देश्य ही अधूरा रह जाएगा। मानव प्रकृति और चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो स्त्री पुरुष के विवाह में इतनी लम्बी अवधि के अंतर से वैवाहिक संबंधों के साथ-साथ वैचारिक तालमेल का भी अभाव रहेगा। उम्र के साथ ही मनुष्य में वैचारिक परिपक्वता ;डंजनतपजलद्ध आती है। विचार ही स्त्री-पुरुष के संबंधों में प्रगाढ़ता लाते हैं। शारीरिक ऊर्जा में असमानता और विचारों में विभिन्नता का प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ेगा। 24 वर्ष की स्त्री में सेक्स ऊर्जा बढ़ोतरी की तरफ़ होगी, जबकि 48 वर्ष के पुरुष में यह ऊर्जा उतार की तरफ होगी। सोचिए! दोनों का वैवाहिक जीवन कैसे खुशहाल रहेगा। वैवाहिक जीवन की सफलता और खुशहाली के लिए यह अतिआवश्यक है कि दोनों में सेक्स ऊर्जा एक ही दिशा में हो। स्वामी जी के किसी एक अनुयायी ने भी शायद कभी इतनी उम्र में विवाह करके उत्तम विवाह का उदाहरण प्रस्तुत किया हो। स्वामी जी द्वारा प्रतिपादित उक्त उत्तम विवाह पारिवारिक और सामाजिक दोनों व्यवस्थाओं के लिए अनुचित है। स्वामी जी का उक्त तथ्य अव्यावहारिक तो है ही, बुद्धिहीनता का परिचायक भी है।
3.तथ्य -
गर्भ स्थिति का निश्चय होने पर एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष का समागम नहीं होना चाहिए। (2-2) (4-65)
समीक्षा - स्वामी जी का यह तथ्य भी क़तई अव्यावहारिक है। विवाह का उद्देश्य केवल संतानोत्पत्ति करना ही नहीं होता बल्कि स्वच्छंद यौन संबंधों को रोकना, भावनाओं को संयमित करना और जीवन में सुख सकून प्राप्त करने के लिए भी किया जाता है। चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से स्त्री और पुरुष में नियमित सेक्स संबंधों का होना अतिआवश्यक है। गर्भ स्थिति का निश्चय होने के बाद एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष में सेक्स संबंधों को प्रतिबंधित करने का न कोई शारीरिक लाभ है और न नैतिक। न मालूम इस तरह की बातें करने का स्वामी जी का क्या उद्देश्य और औचित्य रहा होगा ? स्वामी जी अगर विवाह करते और फिर इस तरह की सलाह देते तो शायद उनकी बात में कुछ सार्थकता दिखाई पड़ती। स्वामी जी ने न स्वयं विवाह किया और न ही स्वामी जी के किसी अनुयायी ने इस नियम का पालन किया होगा। यह एक विडंबना ही है।
4.तथ्य -
जब पति अथवा स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हों तो वह पुरूष अथवा स्त्री नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकते हैं। (4-122 से 149)
समीक्षा- स्वामी जी ने नियोग को एक वेद प्रतिपादित और स्थापित व्यवस्था माना है, परंतु अफ़सोस का विषय है कि खुद स्वामी जी ने अपने जीवन में इस व्यवस्था का पालन करके अपने अनुयायियों के लिए कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं किया, अगर स्वामी जी ऐसा करते तो इससे स्वामी जी के चरित्र को भी बल मिलता और एक मृत प्रायः हो चुकी वैदिक परंपरा पुनः जीवित हो जाती। सन् 1875 ई0 से अब तक स्वामी जी का कोई एक अनुयायी ही यह बताए कि उसने किसी विधवा से नियोग करके पुत्र उत्पन्न किया हो ? कोई भी नियम अथवा सिद्धांत कितना भी अच्छा हो, अगर वह हमारे अमल में नहीं है तो उसके अच्छा होने का कोई महत्व नहीं है। (विस्तार से पढें -
नियोग और नारी)5. तथ्य -
यज्ञ और हवन करने से वातावरण शुद्ध होता है। (4-93)
समीक्षा- यह एक वैज्ञानिक (Scientific) सत्य Truth है कि जब किसी वस्तु को जलाया जाता है तो उसके जलने से कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस CO
2 उत्पन्न होती है। हवन सामग्री कार्बन (C) के कारण और ऑक्सीजन CO
2 की उपस्थिति में ही जल सकती है। अभिक्रिया देखिए -
C + O
2 = CO
2
जैसा कि उक्त अभिक्रिया से स्पष्ट है कि हवन सामग्री के जलने से ऑक्सीजन (व्2) का हृास (सवेे) होगा और कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस CO
2 उत्पन्न होगी। हवन सामग्री का मुख्य घटक ;ब्वउचवदमदजद्ध गाय के घी को माना जाता है। घी अर्थात् वसा (थ्ंज) एक कार्बनिक पदार्थ होता है। वसा (थ्ंज) में कार्बन तत्व अधिक मात्रा में होने के कारण इसके जलाने से और अधिक मात्रा में कार्बन डाइ आॅक्साईड गैस (ब्व्2) उत्पन्न होगी।
यह भी वैज्ञानिक तथ्य (ैबपमदजपपिब ंिबज) है कि कार्बन डाइ आॅक्साइड गैस (ब्व्2) वातावरण को प्रदूषित (च्वससनजमक) करती है। हिंदू विद्वानों और धर्मगुरुओं की धारणा (ब्वदबमचज) है कि गाय के घी के साथ हवन और यज्ञ करने से ऑक्सीजन गैस (व्2) उत्पन्न होती है, जिससे वातावरण शुद्ध होता है। यह क़तई मिथ्या और भ्रामक
धारणा है। यज्ञ और हवन करने से वातावरण सुगंधित तो हो सकता है, शुद्ध नहीं हो सकता।
वातावरण को शुद्ध करने के लिए हमें कुछ ऐसा करना होगा, जिससे आॅक्सीजन (व्2) उत्पन्न हो। इसके लिए बेहतर तरीका यह है कि हम अधिक से अधिक पेड़ लगाए, दीपावली के दिन गंधक और पोटाश का प्रयोग बिल्कुल न करें, पॉलिथीन आदि का प्रयोग बंद कर दें।
गाय के घी को आग में जलाकर यह समझना की इससे वातावरण शुद्ध होता है, ठीक ऐसा ही जैसे किसी आयुर्वेदिक औषधि में गाय का मूत्र मिलाकर यह समझना कि ऐसा करने से औषधि शुद्ध और गुणकारी होती है।
घी एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण और कीमती पदार्थ है। यह मनुष्य के आहार का एक अति महत्वपूर्ण और अतिउत्तम घटक (ब्वउचवदमदज) है। इसको आग में जलाना बेवकूफ़ी तो है ही, नैतिक अपराध भी है।
6.तथ्य- मांस खाना जघन्य अपराध है। मांसाहारियों के हाथ का खाने में आर्यों को भी यह पाप लगता है। पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानिएगा। (10-11 से 15)
समीक्षा- समीक्षा के लिए पढ़ंे - मांसाहार संबंधी विषय
7. तथ्य - मुर्दों को गाड़ना बुरा है क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देते हैं। (13-41, 42)
समीक्षा- समीक्षा के लिए पढ़ें -
दाह संस्कार ः कितना उचित ?
8. तथ्य - लघुशंका के पश्चात् कुछ मुत्रांश कपड़ों में न लगे, इसलिए ख़तना कराना बुरा है।
(13-31)
समीक्षा - ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के रचयिता ने लिखा है कि अगर ख़तना कराना ईश्वर को इष्ट होता तो वह ईश्वर उस चमड़े को आदि सृष्टि में बनाता ही क्यों ? और जो बनाया है वह रक्षार्थ है जैसा आँख के ऊपर चमड़ा। वह गुप्त स्थान अति कोमल है जो उस पर चमड़ा न हो तो एक चींटी के काटने और थोड़ी चोट लगने से बहुत सा दुःख होवे और लघुशंका के पश्चात् कुछ मूत्रांश कपड़ों में न लगे आदि बातों के लिए ख़तना करना बुरा है। ईसा की गवाही मिथ्या है, इसका सोच-विचार ईसाई कुछ भी नहीं करते। (13-31)
‘सत्यार्थ प्रकाश’ के लेखक का यह कहना कि अगर ख़तना कराना ईश्वर को पसंद होता तो वह चमड़ा ऊपर लगाता ही क्यों ? यह कोई बौद्धिक तर्क नहीं है ? सृष्टिकर्ता ने मनुष्य को नंगा पैदा किया है, इसका मतलब यह तो हरगिज़ नहीं है कि मनुष्य कपड़े ना पहने, नंगा ही जिये, नंगा ही मरे, गंदा पैदा होता है, गंदा ही रहे। नाखून और बाल आदि भी न कटवाए। दूसरी बात यह कि सृष्टिकर्ता ने चींटी व चोट आदि से सुरक्षा हेतु झिल्ली की व्यवस्था की है। जिस चमड़ी की व्यवस्था सृष्टिकर्ता ने की है वह चमड़ी या झिल्ली न चींटीं रोधक है और न ही चोट रोधक। वह झिल्ली स्वयं इतनी अधिक कोमल है कि उसे खुद सुरक्षा की आवश्यकता है। तीसरी बात कि लघुशंका के पश्चात् कुछ मूत्रांश कपड़ों पर न लगे इसलिए झिल्ली की व्यवस्था की गई है। झिल्ली में कोई सोखता तो लगा नहीं कि वह मूत्रांश को अपने अंदर सोख लेगा। झिल्ली होने से तो और अधिक मूत्रांश झिल्ली में रूकेगा और कपड़ों को गीला और गंदा करेगा। यह तो एक साधारण सी बात है इसमें किसी शोध की भी आवश्यकता नहीं है। जहाँ तक पेशाब की बात है पेशाब ‘ारीर की गंदगी है, इसे धोया जाए तो नुकसान ही क्या है? मगर लेखक ने पेशाब धोने की बात कहीं नहीं लिखी है, जबकि हिंदू ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। एक उदाहरण देखिए -
एका लिंगे गुदे तिस्रस्तथैकत्र करे दश ।
उभयोः सप्त दातव्याः मृदः ‘शुद्धिमभीप्सता ।।
(मनु0, 5-139)
भावार्थ - शुद्धि के इच्छुक व्यक्ति को मूत्र करने के उपरांत लिंग पर एक बार जल डालना चाहिए । मलत्याग के उपरांत गुदा पर तीन बार मिट्टी मलकर दस बार जल डालना चाहिए और जिस बायें हाथ से गुदा पर मिट्टी मली है व जल से उसे धोया है, उस पर दस बार जल डालते हुए दोनों हाथों पर सात बार मिट्टी मलकर उन्हें जल से अच्छी प्रकार धोना चाहिए ।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि लेखक ने अपनी समीक्षा में केवल ईसा मसीह और ईसाइयों का ही उल्लेख किया है जबकि ख़तना तो यहूदी और मुसलमान भी कराते हैं।
भारतीय वैज्ञानिकों ने शोध कर दावा किया है कि ख़तना कराने वाले लोगों में एच.आई.वी. संक्रमण होने के आसार अन्य लोगों की तुलना में छः गुना कम होते हैं। एक विज्ञान की पत्रिका में यह भी बताया गया है कि पुरुषों की जनेन्द्रिय की पतली चमड़ी पर एच.आई.वी. संक्रमण ज्यादा कारगर तरीके से हमला करता है। ख़तना कराकर अगर चमड़ी को हटा दिया जाए तो संक्रमण का ख़तरा कम हो जाता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि ख़तने के द्वारा एच.आई.वी. संक्रमण से बचाव हो सकता है, क्योंकि लिंग की बाहरी पतली झिल्ली एच.आई.वी. के लिए आसान शिकार है। ख़तना जनेन्द्रिय की झिल्ली के अन्दर जमा होने वाले पसेव (गंदगी) से तो बचाता ही है साथ ही पुरुष के पुरुषत्व को भी बढ़ाता है। इसका मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। ख़तना के एड्स जैसी अन्य ख़तरनाक बीमारियों से बचाव के दूरगामी लाभ भी हो सकते हैं जो अभी मनुष्य की आंखों से ओझल हैं।
9. तथ्य - दंड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधर पर होना चाहिए। (6-27)
समीक्षा- समीक्षा के लिए पढ़ें - मनु स्मृति अपराध और दंड
10. तथ्य - ईश्वर के न्याय में क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं होता । (14-105)
समीक्षा - मनुष्य अपनी आंखों से रोज़ देख रहा है कि एक व्यक्ति जीवन भर दूध में पानी मिलाकर बेचता है। एक व्यक्ति जीवन भर लूट-खसोट करता है। एक व्यक्ति जीवन में हज़ारों मनुष्यों का कत्ल करता है, मगर यहां कभी किसी का बाल-बांका नहीं होता। अब सोचिए! यहां न्याय हो कहां रहा है ? पाठक बताए कि स्वामी जी की धारणा में कितना दम है ? चतुर्थ समुल्लास के 98वें क्रम में स्वामी जी लिखते हैं कि जिस समय मनुष्य अधर्म करता है उस समय फल नहीं मिलता, इसलिए अज्ञानी मनुष्य अधर्म से नहीं डरता। क्या यहां स्वामी जी ने अपनी ही धारणा को नहीं झुठला दिया है ?
11. तथ्य - ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता।
(7-52) (14-15)
समीक्षा - स्वामी जी का यह कहना कि ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता, इससे लगता है कि स्वामी जी की ईश्वर के अस्तित्व, दयालुता और महानता के प्रति धारणा स्पष्ट (ब्समंत) नहीं थी। मनुष्य ग़लतियों का पुतला है। ग़लती करना उसके स्वभाव में है। शायद ही दुनिया में कोई मनुष्य ऐसा हो जिसने कभी कोई पाप न किया हो। प्रत्येक मनुष्य से ग़लती होती है, इसीलिए वह ईश्वर से प्रायश्चित, प्रार्थना और याचना करता है। ईश्वर अत्यंत कृपालु और दयालु है, अगर वह अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता तो फिर मंदिर और मस्जिद, प्रार्थना और प्रायश्चित का औचित्य समाप्त हो जाता है। स्वामी जी की यह धारणा कि ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता, ईश्वर की महानता और दयालुता का इंकार है।
12. तथ्य - सूर्य केवल अपनी परिधि (ंगपे) पर घूमता है किसी लोक के चारों ओर (वतइपज) नहीं घूमता। (8-71)
समीक्षा - ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के अष्टम समुल्लास में लिखा है कि सविता अर्थात् वर्षा आदि का कर्ता अपनी परिधि (।गपे) में घूमता है, किन्तु किसी लोक के चारों ओर (व्तइपजद्ध नहीं घूमता। (प्रश्न क्रम सं0 70)
स्वामी जी ने अपनी उक्त धारणा को सत्य साबित करने के लिए यजुर्वेद का एक मंत्र भी प्रस्तुत किया है।
‘‘आ कृष्णेन रजसा वत्र्तमानो निवेशयéमृतं मत्र्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।।’’
(क्रम सं0 71)
आधुनिक विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंच गया है कि सभी आकाशीय पिंड (।सस ब्मसमेजपंस ठवकपमे) न केवल अपनी धुरी ;।गपे) पर घूम रहे हैं, बल्कि अपनी-अपनी कक्षा ;व्तइपजद्ध में भी चक्कर लगा रहे हैं। जिस प्रकार हमारी पृथ्वी की अपनी धुरी (।गपे) पर औसत गति 1610 कि.मी. प्रति घंटा और अपनी कक्षा (व्तइपज) में औसत गति 107160 कि.मी. प्रति घंटा है, ठीक इसी प्रकार सूरज और चांद की गतियाँ हैं। हमारा सूर्य अपने परिवार और पड़ोसी तारों के साथ एक गोलाकार कक्षा (व्तइपज) में लगभग 9 लाख 60 हजार कि.मी. प्रति घंटा की अनुमानित गति से मंदाकिनी के केन्द्र के चारों ओर परिक्रमा कर रहा है, जबकि सूर्य को अपनी धुरी (।गपेद्ध पर एक पूर्ण चक्कर लगाने में 25.38 दिन का समय लगता है। इन वैज्ञानिक तथ्यों में अब कोई संदेह नहीं है, क्योंकि अब यह एक आंखों देखी सच्चाई है।
उक्त वैज्ञानिक सत्य से तो यहीं बात साबित हो रही है कि या तो स्वामी जी द्वारा प्रस्तुत वेद मंत्र में कहीं त्रुटि हैं, वह प्रमाणित नहीं है या फिर स्वामी जी द्वारा प्रस्तुत वेदार्थ ग़लत है।
13. तथ्य - सूर्य, चन्द्र, तारे आदि पर भी मनुष्य सृष्टि है। (8-73)
समीक्षा - सूरज और चांद पर मनुष्य आदि सृष्टि मुमकिन ही नहीं है। स्वामी जी की यह धारणा आधुनिक विज्ञान के ख़िलाफ़ है। खगोल वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि सूर्य के केन्द्र का तापमान लगभग 6 हजार वब् और सतह का तापमान 15 करोड़ वब् है। इसी प्रकार चांद का दिन में तापमान $130 वब् और रात का तापमान -180 वब् रहता है। सूरज और चाँद पर हवा और पानी है या नहीं इस बहस की यहां आवश्यकता नहीं है एक कम पढ़ा लिखा आदमी भी यह बात आसानी से समझ सकता है कि इतने अधिक तापमान पर मनुष्य तो क्या कोई भी जीव जिन्दा नहीं रह सकता।
जिस समय स्वामी जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लिखा था, उस समय विज्ञान ने इतनी तरक्क़ी नहीं की थी, न मालूम स्वामी जी ने कहां से यह पता लगा लिया कि सूर्य, चाँद आदि पर मनुष्य आदि रहते है। इससे तो यहीं बात साबित हो रही है कि स्वामी जी को वेदों की भी समुचित जानकारी नहीं थी।
14. तथ्य - सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। (10-02)
समीक्षा- स्वामी दयानंद की यह धारणा कि सिर के बाल रखने से बुद्धि कम हो जाती है, बेतुकी और हास्यास्पद है। स्वामी जी ने लिखा है कि ब्राह्मण वर्ण का 16वें, क्षत्रिय वर्ण का 22वें और वैश्य वर्र्ण का 24वें वर्ष में मुंडन होना चाहिए। इसके बाद केवल शिखा को रखकर दाढ़ी-मूंछ और सिर के बाल सदा मुंडवाते रहना चाहिए। अति उष्ण देश हो तो सब शिखा सहित छेदन करा देना चाहिए क्योंकि सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और बुद्धि कम हो जाती है। अब यहाँ पहला सवाल तो यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण का क्रमशः 16 वें, 22वें और 24वें वर्ष में मुंडन कराने का क्या बौद्धिक और वैज्ञानिक तर्क है? तीनों वर्णोंं के लिए अलग-अलग वर्ष निश्चित करने का क्या आधार है? क्या तीनों की गर्भावधि अलग-अलग होती है? दूसरी बात यह कि यहां शूद्र को क्यों छोड़ दिया गया है? क्या शूद्र मनुष्य जाति से नहीं होता?
तीसरी बात यह है कि वैदिक संस्कृति में इन्द्रिय संयम के साथ एक ब्रह्मचारी और संन्यासी का सिर के बाल कटाना और हजामत कराना निषिद्ध है। संन्यासियों के समाज में लम्बे बालों से उनके पद और प्रतिष्ठा का आकलन किया जाता है। हिंदू धर्म के अधिकतर गुरू, साधु-संन्यासी दाढ़ी के साथ सिर के बाल भी लम्बे रखते हैं। स्वामी दयानंद न मालूम किस आधार पर अपनी दाढ़ी मूंछ और सिर के बाल सदैव मुंडवाते रहते थे? चैथी बात यह कि स्त्रियों के लम्बे बालों को शुभ और अच्छा माना जाता है। क्या उष्णता से बचने के लिए स्त्रियों को भी गंजा रहना चाहिए? स्वामी दयानंद की यह धारणा कि सिर के बाल रखने से बुद्धि कम हो जाती है, बेतुकी और हास्यास्पद है। बालों का भला बुद्धि से क्या संबंध? सिर के बाल तो गर्मी-सर्दी से मनुष्य का बचाव करते हैं। बाल मनुष्य के शरीर की शोभा और उसके व्यक्तित्व की पहचान है।
15. तथ्य - स्वामी दयानंद ने लिखा है कि
वेदों का अवतरण ऋषियों की मातृभाषा में न होकर संस्कृत भाषा में हुआ। संस्कृत भाषा उस समय किसी देश अथवा क़ौम की भाषा नहीं थी। कारण यह लिखा है कि अगर ईश्वर किसी देश अथवा क़ौम की भाषा में वेदों का अवतरण करता तो ईश्वर पक्षपाती होता, क्योंकि जिस देश की भाषा में वेदों का अवतरण होता उसको पढ़ने और पढ़ाने में सुगमता और अन्यों को कठिनता होती। (7-89) (7-92)
समीक्षा- जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि वेद आदि ग्रंथ हैं। सृष्टि के आदि में परमात्मा ने मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा आदि चारों महर्षियों को चारों वेदों को ग्रहण कराया। (7-87) यहां सवाल यह पैदा होता है कि वेदों से पहले चारों ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा आदि की मूलभाषा कौन सी थी? दूसरा सवाल यह कि सृष्टि के आदि में पृथ्वी पर कितने देश और क़ौमे थी और उनमें कितनी भाषाएं बोली जाती थी? तीसरा सवाल यह कि वेदों के समय पृथ्वी पर विदेशी अगर थे और वे न ऋषियों की भाषा जानते थे और न ही संस्कृत जानते थे और न ही ऋषि विदेशियों की भाषा जानते थे तो ऋषियों ने उन्हें वेदों का ज्ञान किस प्रकार कराया?
अब जहां तक पक्षपात का सवाल है तो क्या ईश्वर ने सभी मनुष्यों को सभी सुख-सुविधाएं, स्वास्थ्य, ज्ञान, आयु आदि समान रूप से प्रदान की है? स्वामी जी का यह कहना कि अगर किसी देश भाषा में वेदों का प्रकाश होता तो ईश्वर पक्षपाती होता, अर्थपूर्ण, युक्ति-युक्त और स्वाभाविक नहीं है। स्वामी जी की उक्त धारणा विवेक पर
आधारित न होकर मात्र कल्पना पर आधारित है। आज विश्व में सभी बड़ी क़ौमों के पास अपनी-अपनी ईश्वरीय पुस्तकें हैं, जैसे तलमूद, तौरेत, जबूर, बाइबिल, कुरआन आदि। सभी पुस्तकों का अवतरण उसी भाषा में हुआ जो संदेशवाहक की मातृभाषा थी। वेद अगर सृष्टि की आदि पुस्तक है तो फिर यह भी सत्य है कि उस समय पृथ्वी पर चंद ही मनुष्य होंगे। सृष्टि के आदि में देश-विदेश और पक्षपात की बात करना ही बेवकूफ़ी होगी।
तथ्य- जो कुलीन शुभ लक्षणयुक्त शूद्र हो तो उसको मंत्र संहिता छोड़के सब शास्त्र पढ़ावे, शूद्र पढ़े, परन्तु उसका उपनयन न करें। (3-26)
समीक्षा- स्वामी जी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखते हैं, ..................9वें वर्ष के आरम्भ में द्विज अपनी सन्तानों का उपनयन करके गुरूकुल में भेज दें और शूद्रादि वर्ण उपनयन के बिना विद्या अभ्यास के लिए गुरूकुल में भेजें। (2-15) ब्राह्मण तीनों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, क्षत्रिय, क्षत्रिय और वैश्य, तथा वैश्य एक वैश्य वर्र्ण को यज्ञोपवीत कराके पढ़ा सकता है और जो कुलीन शुभ लक्षणयुक्त शूद्र हो तो उसको मंत्रसंहिता छोड़ के सब शास्त्र पढ़ावे, शूद्र पढ़े, परन्तु उसका उपनयन न करें। (3-26) अब रहा सवाल यह है कि आखि़र शूद्र कौन है? एक बच्चा शूद्र है या ब्राह्मण?इसकी पहचान की कसौटी क्या है?
दूसरा सवाल यह है कि शूद्र का उपनयन क्यों नहीं होना चाहिए? तीसरा सवाल यह है कि जब सब मनुष्यों को वेदादि शास्त्र पढ़ने-सुनने का अधिकार है तो शूद्र को मंत्रसंहिता पढ़ने का अधिकार क्यों नहीं है?
चैथी बात यह है कि ‘कुलीन शुभ लक्षण युक्त शूद्र’ का यहां क्या आशय है? क्या शूद्र कई प्रकार के होते हैं?
यहां ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में वर्णित कुछ सवाल और उनके जवाब अति संक्षेप में दिए जा रहे हैं। निष्पक्ष पाठक इन्हें पढ़ कर बखूबी अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सवाल व जवाब कितने स्तरीय और महत्व के हैं।
किसी व्यक्ति ने स्वामी जी से सवाल किया कि मनुष्य की सृष्टि प्रथम हुई या पृथ्वी आदि की? स्वामी जी ने जवाब दिया कि पृथ्वी आदि की, क्योंकि पृथ्वी आदि के बिना मनुष्य की स्थिति और पालन सम्भव नहीं हो सकता (8-50)।
समीक्षा- क्या उक्त सवाल व जवाब से यह अंदाज़ा नहीं होता कि सवाल करने वाला नर्सरी क्लास का बच्चा है और जवाब देने वाला पांचवी क्लास का।
किसी ने स्वामी जी से यह सवाल किया कि जगत् के बनाने में परमेश्वर का क्या प्रयोजन है? उत्तर दिया गया कि नहीं बनाने में क्या प्रयोजन है? (8-16)
समीक्षा- क्या यह सवाल का उचित और पूर्ण जवाब है। यहां सवाल करने वाले का जवाब दिया गया है या सवाल करने वाले से सवाल किया गया है ? यह मानव जीवन से जुड़ा परम महत्व का सवाल था जिसे स्वामी जी ने कूड़ेदान में डाल दिया और जो आगे समझाया है वह भी स्पष्ट नहीं है।
किसी व्यक्ति ने स्वामी जी से सवाल किया कि-फल, मूल, कंद और रस इत्यादि अदृष्ट में दोष नहीं ? (10-18)
समीक्षा- यहां यह बात बताई गई है कि अगर कोई आर्य भंगी अथवा मुसलमान के घर का बना हुआ अदृश्य (बिना देखा) अथवा छुआ हुआ कुछ खाता है तो वह पाप का भागीदार होता है। क्या आज के वातावरण में इस तरह की संकीर्ण मानसिकता को अच्छा व व्यावहारिक कहा जा सकता है? आज तो सारी दुनिया एक हो गई है। हिंदू मुसलमान का अंतर ही समाप्त होता जा रहा है। आज प्रत्येक धर्म और जाति का व्यक्ति एक-दूसरे के घर आता-जाता और खाता-पीता है। अब रही मांस खाने की बात, मांस न केवल ईसाई और मुसलमान खाते हैं, बल्कि मांसाहारी तो हिंदू भी होते हैं। हिंदू तो न केवल मुर्गा, बकरा, मछली आदि का मांस खाते हैं, बल्कि वे तो घृणित जानवर सुअर का मांस भी खाते हैं। सुअर का मांस हिंदुओं के कुछ वर्गों में विषेश रूप से पसंद किया जाता है।
किसी ने महर्षि से यह सवाल भी किया कि लोग गाय के गोबर से चैका लगाते हैं, अपने गोबर से क्यों नहीं लगाते? महर्षि ने जवाब दिया कि गाय के गोबर में वैसा दुर्गन्ध नहीं होता जैसा मनुष्य के मल में होता है। (10-36)।
समीक्षा- निष्पक्ष पाठक सवाल और जवाब से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सवाल कितना गंभीर और परम महत्व का किया गया है और जवाब भी कितना तार्किक व गंभीर है?
क्या सवालकर्ता नहीं जानता कि मनुष्य के मल में दुर्गन्ध होती है? क्या सवालकर्ता ने कभी मनुष्य का मल नहीं देखा होगा? क्या सवालकर्ता मनुष्य जाति का न होकर अन्य किसी जाति का था? क्या जवाब देने वाला यह नहीं जानता था कि यह कोई सवाल नहीं बनता? दूसरी बात यह भी कि अगर किसी अनाड़ी अथवा अल्पबुद्धि व्यक्ति ने स्वामी जी से इतना बेहुदा और घिनौना सवाल किया भी था तो वेदों के आधुनिक महापंडित को ऐसे सवाल को अपने महान ग्रंथ ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ में लिखने की भला क्या ज़रूरत थी।?
जैन मतानुयायी ने सवाल किया कि देखो! तुम लोग बिना उष्ण किए कच्चा पानी पीते हो, वह बड़ा पाप करते हो। जैसे हम उष्ण पानी पीते हैं, वैसे तुम लोग भी पिया करो। उत्तर में कहा गया कि यह बात तुम्हारी भ्रम जाल की है, क्योंकि जब तुम पानी को उष्ण करते हो तब पानी के जीव सब मरते होंगे और उनका शरीर भी जल में रंधकर वह पानी सौंफ के अर्क तुल्य होने से जानों तुम उनके ‘शरीरों का तेजाब’ पीते हो। इसमें तुम बड़े पापी हो और जो ठण्डा जल पीते हैं वे नहीं। (12-200)
समीक्षा- यहां स्वामी जी ने यह नहीं बताया कि पानी के अंदर वह कौन से बड़े जीव हैं जो रंधकर सौंफ के अर्क के तुल्य हो जाते हैं। दूसरी बात यह है कि स्वामी जी अगर ठण्डा पानी पीने को छोटा पाप समझते हैं, तो सब्जी, चाय, दूध आदि में जो पानी हम इस्तेमाल करते हैं उसमें भी तो जल के जीव रंधकर सौंफ के अर्क के तुल्य होते होंगे। क्या उससे बचा जा सकता है? तीसरी बात यह है कि जीव तो हवा में भी होते हैं उनसे कैसे बचा जाए? चैथी बात यह है कि उक्त में छोटे पापी व बड़े पापी की कौन-सी बात है, सांस भी सभी लेते हैं और पानी भी सभी पीते हैं अगर पानी में जीव है तो फिर पानी पीना ही पाप है, पानी गर्म हो या ठण्डा।
एक मुस्लिम मतावलंबी ने कहा कि खुदा सर्वशक्तिमान है, वह जो चाहे कर सकता है। उत्तर में कहा गया कि क्या खुदा दूसरा खुदा भी बना सकता है? अपने आप मर सकता है? मूर्ख, रोगी और अज्ञानी भी बन सकता है? (14-28)
समीक्षा- मुस्लिम मतावलंबी का यह कहना कि खुदा सर्वशक्तिमान है वह जो चाहे कर सकता है। कोई खुदा (ईश्वर) का इंकारी ही इस सत्य का इंकार कर सकता है। स्वामी जी द्वारा इस सत्य को रद्द करते हुए कहा गया है कि क्या खुदा दूसरा खुदा भी बना सकता है? अपने आप मर सकता है? मूर्ख रोगी और अज्ञानी बन सकता है? क्या उक्त जवाब बेतुका और मूर्खता पूर्ण नहीं है? क्या ख़ुदा (ईश्वर) वास्तव में सर्वशक्तिमान नहीं है?