आर्य समाज संस्था के निर्माता आचार्य स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित अनेक ग्रंथों में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ मुख्य ग्रंथ है। स्वामी जी द्वारा प्रणीत यह महान ग्रंथ उनके द्वारा तीन हजार ग्रंथों के गहन अध्ययन और अड़तीस वर्षों के लम्बे चिंतन और अनुभव का सार है। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ आर्यसमाज संस्था की रीढ़ है। आर्य समाजियों को स्वामी जी की इस पुस्तक पर गर्व है। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का प्रथम संस्करण सितम्बर 1875 ई0 में तथा भाषा और व्याकरण आदि की ‘'शुद्धि और कुछ परिवर्धन के बाद द्वितीय संस्करण सन् 1882 ई0 में प्रकाशित किया गया। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में कुल चैदह समुल्लास हैं। इसकी मूल भाषा हिन्दी है।
महर्षि दयानंद ने वैदिक सिद्धांतों के प्रतिपादन हेतु इस महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की थी। इसके प्रथम संस्करण में केवल बारह समुल्लास थे। बाद के संस्करण में इसमें दो समुल्लास और जोड़ दिए गए। इस पुस्तक में सभी मत-मतांतरों की कटु और अपमानजनक ‘शब्दों में निंदा और आलोचना की गई है। बताया जाता है कि स्वामी दयानंद तर्कसंगत विचारों के पोषक थे। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को स्वामी जी के प्रगतिशील विचारों का संकलन बताया जाता है।
किसी भी पुस्तक की दो बड़ी खूबियां होती हैं। पहली यह कि उसकी भाषा-शैली सरल, सुबोध, शिष्ट, प्रवाहपूर्ण और भावात्मक हो। दूसरी यह कि उसमें प्रस्तुत तथ्य और विषय वस्तु तार्किक, बौद्धिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक हो। जहाँ तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का सवाल है, यह पुस्तक उक्त दोनों बिन्दुओं पर अत्यंत निम्न और घटिया है। मुझे तो संदेह होता है कि यह पुस्तक अपने मूल में भी है या नहीं? अगर यह पुस्तक आज अपने मूल में नहीं है तो फिर कोई सवाल पैदा नहीं होता। लेकिन अगर यह पुस्तक अपने मूल ही में है तो फिर यह सवाल पैदा होता है कि क्या यह पुस्तक किसी वेद विद्वान, व्याकरण के प्रकांड पंडित और आचार्य की कृति हो सकती है ?
भाषा शैली किसी लेखक की योग्यता और विद्वता की प्रमाण होती है। जिस व्यक्ति की विद्वता की धाक हो, जो एक संगठन का निर्माता आचार्य हो, क्या वह इतनी घिनौनी और ‘शर्मनाक भाषा का प्रयोग कभी कर सकता है ? जैसी भाषा शैली का प्रयोग अंतिम चार समुल्लासों में किया गया है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ अंश प्रस्तुत हैं ः-
‘देखो इन गवरगण्ड पोपो की लीला’,
’कथा का गपोड़ा भंग की लहरी में उड़ाया’,
‘महंत पुजारी पण्डे आँख के अंधे गांठ के पूरे’,
‘वाह रे वाह! भागवत के बनाने वाले लाल भुजक्कड़’,
‘गपोड़े का भाई गपोड़ा’,
‘क्या घूड़ अच्छे हैं’,
‘जैसा प्रेतनाथ वैसा भूतनाथ’,
‘ऐसी गपड़चैथ क्यों लिखता’,
‘कितनी पामरपन की बात है’,
‘यह बात बेर बेचने वाली कूंजड़ी के समान है’,
‘वाह रे वाह! विद्या के ‘शत्रुओं’,
‘वाह ईसाइयों के ईश्वर! क्या बड़ा डाक्तर है।‘,
‘ईसाइयों का ईश्वर अखाड़मल्ल है’,
‘अण्डवण्ड कथा गाई’, ‘यह ईश्वर क्या यह तो बड़ा खिलाड़ी है’,
‘अब देखिए! लम्बे चैड़े गपोड़े’, ‘यह देखो लड़केपन की बात’, ‘अब देखिए खुदा की अल्पज्ञता’, कुरआन का बनाने वाला निरक्षर भट्ट है’ ‘खुदा बड़ा गड़बड़िया है’, ‘खुदा ‘शैतानों का भी ‘शैतान है’, ‘खुदा झूठ का प्रवर्तक है’, ‘घसड़ पसड़’, ‘गड़ बड़ाध्याय’, ‘वाह जी वाह देखो जी! मुसलमानों का खुदा भानुमती के समान खेल रहा है’, ‘गवरगण्ड राजा के तुल्य’, ‘अंधेर नगरी गवरगण्ड राजा’, ‘गदर मचाने वाले खुदा और नबी’, ‘यह कुरआन का खुदा और नबी दोनों लड़ाईबाज़ थे’, ‘जिसका खुदा धोखेबाज उसके उपासक लोग धोखेबाज क्यों न हों ?’, ‘कुरआन किसी कपटी-छली का बनाया हुआ होगा’, ‘वाह जी वाह! कैसा खुदा और कैसे पैग़म्बर दयाहीन’, ‘खुदा क्या ठहरा मानो मुहम्मद साहेब के लिए बीवियां लाने वाला नाई ठहरा’, ‘वाह जी वाह! कुरआन के बनाने वाले फिलासफर!’।
यह तो थी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की अशिष्ट, निकृष्ट और अहंकार पूर्ण भाषा शैली की एक झलक। अब ज़रा निम्न तथ्यों पर भी एक नज़र डालिए कि ये कितने ठोस, वैज्ञानिक और व्यावहारिक हैं ?
वेदों के ज्ञाता महर्षि दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा हैः-
1. प्रसूता छह दिन के पश्चात् बच्चे को दूध न पिलावे।
(2-3) (4-68)
2. 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरुष का विवाह उत्तम है अर्थात् स्वामी जी के मतानुसार लड़के की उम्र लड़की से दूना या ढाई गुना होनी चाहिए।
(4-20) (14-143) (3-31)
3. गर्भ स्थिति का निश्चय हो जाने पर एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष का समागम नहीं होना चाहिए। (2-2) (4-65)
4. जब पति अथवा स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हों तो वह पुरुष अथवा स्त्री नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकते हैं।
(4-122 से 149)
5. यज्ञ और हवन करने से वातावरण ‘शुद्ध होता है। (4-93)
6. मांस खाना जघन्य अपराध है। मांसाहारियों के हाथ का खाने में आर्यों को भी यह पाप लगता है। पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानिएगा। (10-11 से 25)
7. मुर्दों को गाड़ना बुरा है क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देते हैं। (13-41, 42)
8. लघुशंका के पश्चात् कुछ मुत्रांश कपड़ों में न लगे, इसलिए ख़तना कराना बुरा है। (13-31)
9. दण्ड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधार पर होना चाहिए। (6-27)
10. ईश्वर के न्याय में क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं होता। (14-105)
11. ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता। (7-52)
12. सूर्य केवल अपनी परिधि (Axis) पर घूमता है किसी लोक के चारों ओर (Orbit) नहीं घूमता। (8-71)
13. सूर्य, चन्द्र, तारे आदि पर भी मनुष्य आदि सृष्टि हैं। (8-73)
14. सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। (10-2)
जरा सोचिए ! क्या उक्त तथ्य वास्तव में बौद्धिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक हैं ?
वेदों के ज्ञाता स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों के निर्देशन में लिखा है ः-
1. ईश्वर जगत् का निमित्त (Efficient Cause) कारण है, उपादन कारण (Material Cause) नहीं है। (7-45) (8-3)
वैदिक धर्म एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करता है और उसे सृष्टिकर्ता भी मानता है, मगर स्वामी दयानंद ने कहा कि उपादन कारण के बिना जगत् की उत्पत्ति संभव नहीं है। ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों अनादि हैं। ईश्वर मात्र शिल्पी है, उसने सृष्टि का विकास किया है, सृजन नहीं किया। अर्थात् जिस प्रकार कुम्भकार ने घड़ा बनाया, मिट्टी नहीं बनाई, ठीक इसी प्रकार परमेश्वर ने जगत् बनाया। प्रकृति और जीव दोनों संसाधन ;(Material) पहले से मौजूद थे।
2. सम्पूर्ण मानवता एक माँ-बाप की संतान नहीं है। (8-51)
3. वेद आवागमनीय पुनर्जन्म की अवधारणा का प्रतिपादन करते हैं। (9-75)
4. मनुष्य और पशु आदि में जीव (Soul) एक सा है। (9-74)
5. स्वर्ग, नरक का कोई अलग लोक नहीं है। (9-79)
विचार करें कि क्या वास्तव में वेद उक्त तथ्यों को प्रतिपादित करते हैं ?
किसी व्यक्ति ने स्वामी जी से सवाल किया कि मनुष्य की सृष्टि प्रथम हुई या पृथ्वी आदि की ? स्वामी जी ने जवाब दिया कि पृथ्वी आदि की, क्योंकि पृथ्वी आदि के बिना मनुष्य की स्थिति और पालन सम्भव नहीं हो सकता (8-50)।
किसी ने स्वामी जी से यह सवाल किया कि जगत् के बनाने में परमेश्वर का क्या प्रयोजन है ? उत्तर दिया गया कि नहीं बनाने में क्या प्रयोजन है ? (8-16)
एक अन्य प्रश्न-फल, मूल, कंद और रस इत्यादि अदृष्ट में दोष नहीं ?
उत्तर - अच्छा (जो अदृष्ट में दोष नहीं) तो भंगी व मुसलमान अपने हाथों से दूसरे स्थान में बनाकर तुम को आकर देवें तो खा लोगे या नहीं ? जो कहो कि नहीं तो अदृष्ट में भी दोष है। हाँ! मुसलमानों, ईसाई आदि मद्य-मांसाहारियों के हाथ के खाने में आर्याें को भी मद्य-मांसादि खाने-पीने का अपराध पीछे लग पड़ता है। (10-18)
किसी ने महर्षि से यह सवाल भी किया कि लोग गाय के गोबर से चैका लगाते हैं, अपने गोबर से क्यों नहीं लगाते ? महर्षि ने जवाब दिया कि गाय के गोबर में वैसा दुर्गन्ध नहीं होता जैसा मनुष्य के मल में होता है। (10-36)।
जैन मतानुयायी ने सवाल किया कि देखो ! तुम लोग बिना उष्ण किए कच्चा पानी पीते हो, वह बड़ा पाप करते हो। जैसे हम उष्ण पानी पीते हैं, वैसे तुम लोग भी पिया करो। उत्तर में कहा गया कि यह बात तुम्हारी भ्रम जाल की है, क्योंकि जब तुम पानी को उष्ण करते हो तब पानी के जीव सब मरते होंगे और उनका ‘शरीर भी जल में रंधकर वह पानी सौंफ के अर्क तुल्य होने से जानों तुम उनके ‘शरीरों का ‘तेजाब’ पीते हो। इसमें तुम बड़े पापी हो और जो ठण्डा जल पीते हैं वे नहीं। (12-200)
एक मुस्लिम मतावलंबी ने कहा कि खुदा सर्वशक्तिमान है, वह जो चाहे कर सकता है। उत्तर में कहा गया कि क्या खुदा दूसरा खुदा भी बना सकता है ? अपने आप मर सकता है? मूर्ख, रोगी और अज्ञानी भी बन सकता है ? (14-28)
स्वामी दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि जब स्त्री और पुरुष का विवाह हो जाए तब से उनके खान-पान का उत्तम प्रबन्ध होना चाहिए कि जिससे उनका ‘शरीर जो पूर्व ब्रह्मचर्य और विद्याध्ययनरूप तपश्चर्या और कष्ट से दुर्बल होता है वह चन्द्रमा की कला के समान बढ़के थोड़े ही दिनों में पुष्ट हो जाए।
पश्चात् जिस दिन कन्या रजस्वला होकर जब ‘शुद्ध हो तब वेदी और मण्डप रचके अनेक सुगन्धयादि द्रव्य और घृतादि का होम तथा अनेक विद्वान पुरुष और स्त्रियों का यथायोग्य सत्कार करें। पश्चात् जिस दिन ऋतुदान देना योग्य समझें उसी दिन ‘संस्कारविधि’ पुस्तकस्थ विधि के अनुसार सब कर्म करके मध्यरात्रि वा दश बजे अति प्रसन्नता से सब के सामने पाणिग्रहणपूर्वक विवाह की विधि को पूरा करके एकान्त सेवन करें।
पुरुष वीर्यस्थापन और स्त्री वीर्याकर्षण की जो विधि है उसी के अनुसार दोनों करें। जहां तक बने वहां तक ब्रह्मचर्य के वीर्य को व्यर्थ न जाने दें, क्योंकि उस वीर्य वा रज से जो ‘शरीर उत्पन्न होता है वह अपूर्व उत्तम संतान होता है। जब वीर्य का गर्भाशय में गिरने का समय हो उस समय स्त्री और पुरुष दोनों स्थिर और नासिका के सामने नासिका, नेत्र के सामने नेत्र अर्थात् सूधा ‘ारीर और अत्यंत प्रसन्नचित रहें, डिगें नहीं। पुरुष अपने ‘ारीर को ढीला छोड़े और स्त्री वीर्यप्राप्ति-समय अपान वायु को ऊपर खींचे, योनि को ऊपर संकोच कर वीर्य का ऊपर आकर्षण करके गर्भाशय में स्थिर करें। पश्चात् दोनों ‘शुद्ध जल से स्नान करें।
गर्भस्थिति होने का परिज्ञान विदुषी स्त्री को तो उसी समय हो जाता है, परन्तु इसका निश्चय एक मास के पश्चात् रजस्वला न होने पर सब को हो जाता है। (4-63,64)
उपर्युक्त तथ्यों और विषय वस्तु को पढ़कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्या इस तरह की बातें एक विद्वान व्यक्ति और बाल ब्रह्मचारी द्वारा लिखी पुस्तक की विषय वस्तु हो सकती है ?
उक्त विषयों के अलावा यह बात भी संदेह उत्पन्न करती है कि स्वामी हिन्दी नहीं जानते थे। उन्होंने खुद ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के द्वितीय संस्करण की भूमिका में लिखा है कि ‘‘जिस समय मैंने यह ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ बनाया था, उस समय और उससे पूर्व संस्कृत भाषण करने, पठन-पाठन में संस्कृत ही बोलने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण मुझको इस भाषा का विशेष परिज्ञान नहीं था।’’ अतः यह स्पष्ट है कि स्वामी जी को हिन्दी का समुचित ज्ञान नहीं था। जिन दो भाषाओं का समुचित ज्ञान स्वामी जी को था, उनमें गुजराती क्षेत्रीय भाषा थी और संस्कृत आम बोलचाल की भाषा नहीं थी। यहाँ पर यह सवाल पैदा होता है कि स्वामी जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लिखने से पहले जैन, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम आदि धर्माें की पुस्तकों का अध्ययन किया तो वह किस भाषा में किया ? यहाँ यह भी विचारणीय है कि किसी भी नई भाषा को सीखने वाला व्यक्ति साहित्यिक दृष्टि से संभल कर बोलेगा और लिखेगा। ऐसा कभी नहीं होता कि नई भाषा सीखने वाला व्यक्ति पहले उस भाषा की गाली-गलौच और अशिष्ट ‘शब्द सीखता है।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि यह कौन सी अक्लमंदी की बात है कि आदमी उस भाषा में पुस्तक लिखे, जिस भाषा का उसे समुचित ज्ञान न हो। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को गुजराती अथवा संस्कृत में लिखकर उसका हिन्दी रुपांतरण कराया जा सकता था।
किसी विद्वान और धार्मिक व्यक्ति की भाषा कभी मर्यादाहीन, अहंकारपूर्ण और विद्वेषपूर्ण नहीं होती। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि यह किसी ज्ञानवान और कुलीन व्यक्ति की लेखनी हो। 14वें समुल्लास को पढ़कर तो ऐसा लगता है कि जैसे यह किसी दुराग्रही, दंभी और अल्पज्ञ व्यक्ति की करतूत हो। मुझे तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा अंतरिम द्वेष और कुटिल भाव के कारण स्वामी जी की इस कृति के साथ छेड़छाड़ कर एक महान आत्मा के उद्देश्य और प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने की कुचेष्टा की गई हो। मेरा यह दावा है कि जिस रूप में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ आज हमारे सम्मुख है, वह किसी प्रकांड पंडित और धर्मज्ञ की रचना नहीं हो सकती। एक कम अक़ल और गंवार व्यक्ति अशिष्ट और दंभपूर्ण भाषा ‘ौली का प्रयोग करें तो बात समझ में आती है, मगर एक आचार्य, संस्कृत का प्रकांड पंडित और वेदों का ज्ञाता अपने मुख्य ग्रंथ में ऐसी भाषा का प्रयोग करें तो इसे क्या कहा जाएगा ? संस्कृत एक अलौकिक, सभ्य और संस्कारित भाषा है, अगर एक संस्कृत और व्याकरण का प्रकांड पंडित अपने मुख्य ग्रंथ में निकृष्ट और अहंकार पूर्ण भाषा का प्रयोग करें तो क्या यह संस्कृत भाषा का अपमान नहीं हैं ?
नोटः कोष्ठक में प्रस्तुत संदर्भ की पहली संख्या समुल्लास को और दूसरी संख्या समुल्लासों में इंगित प्रश्न, उत्तर या समीक्षा क्रम संख्या को दर्शाती है।
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