अक्सर देखा गया है कि भारतीय संस्कृति के जितने भी विद्वान, चिंतक और सुधारक हुए हैं, उन सभी ने मांसाहार का प्रबल विरोध और कठोर “शब्दों में निंदा की है। उनमें चाहे स्वामी दयानंद सरस्वती हो, स्वामी विवेकानंद हो, श्रीराम शर्मा आचार्य हो, आशाराम बापू हो, श्री रविशंकर हो या योग गुरु रामदेव हो। विडंबना देखिए कि मांसाहार का न वेद निषेध करते हैं न मनुस्मृति। न रामायण, महाभारत और चरक संहिता में मांसाहार का निषेध है।
न हमारा संविधान मांसाहार का निषेध करता है और न ही हमारा विज्ञान मांसाहार का विरोध करता है फिर हमारे गुरु, विद्वान और सुधारक मांसाहार का प्रबल विरोध आख़िर क्यों करते हैं ?
माह अक्टूबर 2009 की मासिक पत्रिका ‘अखंड ज्योति’ के एक विषय ‘शाकाहार ही है प्राकृतिक आहार’ में डाइट एंड फूड नामक कृति के लेखक वैज्ञानिक मनीशी डॉक्टर हेग के शब्दों को लिखा गया है -
‘‘शाकाहार से शक्ति उत्पन्न होती है और मांस खाने से उत्तेजना बढ़ती है।’’यही कारण है कि समस्त धर्मग्रंथों ने एक स्वर से मांसाहार का निशेध किया है और इस बुराई पर अड़े रहने वालों को कटु शब्दों में धिक्कारा है। हिंदू धर्मग्रंथों के अतिरिक्त बाइबिल, कुरआन आदि सभी धर्मग्रंथों ने मांसाहार को हेय ठहराया है और निरीह प्रजातियों की हत्या को घोर दंडनीय अपराध कहा है।’’ उक्त शब्द एक वैज्ञानिक मनीशी और डॉक्टर के हैं। जिन लोगों ने हिंदू “शास्त्रों के अलावा बाइबिल और कुरआन का भी अध्ययन किया है वे लोग बखूबी अंदाजा लगा सकते हैं कि उक्त मनीशी को “शास्त्रों का कितना ज्ञान था। उक्त मनीशी की शास्त्रों के प्रति अनभिज्ञता तो स्पष्ट हो ही रही है, यह वैज्ञानिक विज्ञान के तथ्यों और सत्यों से भी कतई अनभिज्ञ था।
पत्रिका में आगे विश्वविख्यात दार्शनिक पैथागोरस के शब्दों में इस प्रकार लिखा है -
‘‘ऐ मौत के फंदे में उलझे हुए इंसान ! अपनी तश्तरियों को मांस से सजाने के लिए जीवों की हत्या करना छोड़ दे। जो व्यक्ति भोले-भाले प्राणियों की गरदन पर छुरी चलवाता है, उनका करुण क्रंदन सुनता है, जो अपने हाथों पाले हुए पशु-पक्षियों की हत्या करके अपनी मौज मनाता है, उसे अत्यंत तुच्छ स्तर का व्यक्ति समझना चाहिए। जो पशुओं का मांस खा सकता है, वह किसी दिन मनुष्यों का भी खून पी सकता है।’’
योग गुरु रामदेव ने अपने योग षिविर को संबोधित करते हुए कहा कि अगर कोई मुझसे कहे कि एक अंडा खा लो, हम तुम्हें सारी दुनिया का मालिक बना देंगे, तो मैं फिर भी अंडा खाना पसंद नहीं करूंगा। लोग कहते हैं कि अंडे में प्रोटीन होता है, मैं कहता हूँ कि अंडे में प्रोटीन नहीं बल्कि पौट्टी (स्ंजतपदम) होती है।’’
पाठक अंदाजा लगा सकते हैं कि योग गुरु रामदेव की धारणा कितनी वैज्ञानिक और तर्कसंगत है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि गुरु रामदेव जी गाय के मूत्र को रोगनाषक औषधि बताते हैं।
अखंड ज्योति में शास्त्रों के नाम से कहा गया है कि ‘अन्न अर्थात् आहार के अनुसार ही मन बनता है। यह उक्ति जो कही गयी है उचित प्रतीत होती है। मगर मांसाहार से जोड़कर जो इसकी व्याख्या की गयी है वह कतई असंगत है। इसमें मांसाहार का कही निषेध या विरोध नहीं है। इस उक्ति का मतलब तो यह है कि जो आहार हम खाये, वह शुद्ध, सात्विक और स्वच्छ होना चाहिए। वह मेहनत और ईमानदारी से कमाया हुआ होना चाहिए, न कि लूट खसोट, छीना झपटी, धोखाधड़ी, रिष्वत और ब्याज आदि का। हमारी इस नेक और खून-पसीने की कमाई में गरीब, असहाय, बीमार आदि का भी हिस्सा होना चाहिए। अगर हम चोरी का, लूट-खसोट का, बेईमानी का अन्न खायेंगे तो उसका प्रभाव अवश्य हमारे मन मस्तिष्क पर पड़ेगा। लेख में जो कहा गया है कि मांस खाने से मनुष्य के अन्दर बर्बरता और क्रूरता बढ़ती है, यह तथ्य बिल्कुल अतार्किक और अव्यावहारिक है। प्रायः देखने में आता है कि हिंदू समाज में मांसाहार का विरोध पाया जाता है, मगर इस समाज में भ्रूण हत्या की दर अन्य कौमों से कम नहीं है। इससे अधिक क्रूरता और बर्बरता की बात और क्या होगी कि एक औरत अपने पेट के बच्चे तक को पैसे देकर कत्ल (।इवतजपवद) करा रही है। क्या यह क्रूरता मांसाहार से उत्पन्न प्रवृत्ति की देन है ?
31 अक्टूबर सन् 1984 को भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अपने ही सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई। इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद पूरी सिख कौम को दोषी मानते हुए लगभग 4000 सिखों को बेदर्दी से कत्ल किया गया। पूरे के पूरे परिवारों को जिंदा जला दिया गया। यहां सवाल यह पैदा होता है कि क्या यह सब करने वाले मांसाहारी थे ?
31 अक्टूबर सन् 1984 को भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अपने ही सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई। इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद पूरी सिख कौम को दोषी मानते हुए लगभग 4000 सिखों को बेदर्दी से कत्ल किया गया। पूरे के पूरे परिवारों को जिंदा जला दिया गया। यहां सवाल यह पैदा होता है कि क्या यह सब करने वाले मांसाहारी थे ?
2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में मुसलमानों पर जो जुल्म हुआ, वहां जो बर्बरता और क्रूरता का नंगा नाच हुआ, क्या वे सब करने वाले मांसाहारी थे ?
कुछ हिंदू विद्वान और गुरु यह भी प्रचारित कर रहे हैं कि ‘‘ग्लोबल वार्मिंग का एक कारण मांसभक्षण भी है।’’ यह तथ्य भी विज्ञान और प्रकृति के बिल्कुल विपरीत है। वास्तविकता तो यह है कि स्रष्टा ने प्राकृतिक संतुलन के लिए एक जीव को दूसरे जीव पर निर्भर बनाया है। मांसभक्षण प्रकृति की एक अनिवार्य क्रिया है। भोजन को मांसाहार और शाकाहार दो हिस्सों में बांटना एक धोखा है, अंधविश्वास है। आज विज्ञान के युग में, जबकि हमें प्रत्येक जीव और वनस्पति की हिस्ट्री और कैमिस्ट्री मालूम है, फिर भी आज हमारे तथाकथित गुरु अपने धर्मशास्त्रों, वैज्ञानिक सत्यों और प्राकृतिक व्यवस्था का विरोध न जाने क्यों कर रहे हैं ?
आज हम सम्पूर्ण वनस्पति जगत, प्राणि जगत और विशाल समुंद्री जगत की वास्तविकता घर बैठे देख रहे हैं इसलिए यह बात आसानी से समझ सकते हैं कि अगर विश्व में मांसाहार पर 100 प्रतिशत प्रतिबंध लगा दिया जाए तो क्या हम 700 करोड़ लोगों की आहार पूर्ति केवल अनाज से कर पायेंगे ?
हमारी सम्पूर्ण पृथ्वी का 30 प्रतिशत थल और लगभग 70 प्रतिशत समुंद्र है। 30 प्रतिशत थल में भी पहाड़ है, रेगिस्तान है, वन खंड है, बंजर है, नदी-नाले हैं, आवास हैं, जो कृषि योग्य भूमि है वह अत्यंत ही कम है। इस कृषि योग्य भूमि से मानव जाति की आहार पूर्ति संभव नहीं है फिर आख़िर यह बात हमारी समझ में क्यों नहीं आती कि मांस भक्षण मानव जाति की आहार पूर्ति के लिए अपरिहार्य है। इसका हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं है। अगर मांस भक्षण पर प्रतिबंध लगा दिया जाए तो अंदाजा लगाइए कि एक रोटी की कीमत क्या होगी ?
मांस एक प्राकृतिक आहार है। मांस भक्षण का विरोध करना प्राकृतिक व्यवस्था के ख़िलाफ है। शाकाहारवाद एक अप्राकृतिक धारणा है, इसे कभी पूर्णतया लागू ही नहीं किया जा सकता। आने वाले समय में तो कुछ ऐसा लगता है कि मनुष्य की आहार पूर्ति केवल समुंद्र (ैमं थ्ववक) से होगी और सच भी यही है कि अति विशाल समुंद्र ही हमारी आहार पूर्ति का मूल स्रोत है। जो शाकाहारवादी ;म्गजतमउपेज टमहमजंतपंदपेउद्ध मांसाहार का पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं, उन्हें अपनी रुढ़िवादी और मिथ्या धारणा पर पुनर्विचार करना चाहिए। प्राकृतिक सत्यों को झुठलाना स्वयं को अज्ञानी और अंधविश्वासी साबित करना है।
यहां मेरा उद्देश्य मांसाहार को प्रोत्साहित करना हरगिज़ नहीं है, जो खाना है खाये। यह समाज, राष्ट्र और विश्व की कोई ज्वलंत समस्या नहीं है। यहां मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि हम कोई ऐसा भ्रामक प्रचार न करें जिसका हमारे समाज पर निकट भविष्य में बुरा और प्रतिकूल प्रभाव पड़े।